आजाद भारत का वह पहला काला दिन: आपातकाल

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समस्या टीम

कुर्सी गंवाने का डर लगा तब रचा कुचक्र! दमनचक्र भी ऐसा कि अंग्रेजी हुकूमत को भी पीछे छोड़ दिया, न जनता का ख्याल, न नेताओं का, हालत यह हुए कि विपक्ष, मीडिया और सिनेमा जगत तक सारा देश सहम गया। अगर कहें कि आजाद भारत का वह पहला काला दिन था जब चुनी हुई प्रधानमंत्री ने निजी हित संवारने के लिए देश को संकट में झोंक दिया, तो 100 फीसदी सच है। खैर सत्ता के भोग में जब अंधी हुई इंदिरा गांधी तब चला न्यायालय का चाबुक! और न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा के फैसले ने साफ कर दिया कि अब भारत में लोकतंत्र है और इंदिरा गांधी ने सत्ता के लालच में सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग किया है लिहाजा 6 साल तक न तो सांसदी का चुनाव लड़ सकतीं हैं और न ही सत्ता के लायक हैं, बस यही फैसला इंदिरा के दमन चक्र में ऐसा रोड़ बना कि न तो इंदिरा गांधी राज्यसभा जाने लायक बचीं, न ही उनके पास प्रधानमंत्री का पद संभालने की कुब्बत। बहरहाल 11 दिन बाद इंदिरा ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की तो यहां से भी इन्हें सांसदी लड़ने की आजादी नहीं मिली मतलब इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला नहीं टाला गया, हालांकि यह खबर सत्याग्रह में भी अभी हाल में ही मतलब दो हफ्ते पहले छापी गई थी, अन्य तमाम मीडिया संस्थान से भी यह खबर सुर्खियों में है और 25 जून का दिन छूते ही यह खबर हर साल सुर्खियां बनती है, आज 45 साल बाद फिर कुछ इस तरह! जब 1971 का चुनाव रायबरेली से जीतीं इंदिरा गांधी तो बार बार विपक्ष में खड़े होने वाले राजनारायण ने दी हाईकोर्ट में शिकायत। 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट से जिस मुकदमे में यह फैसला आया था उसे ‘राजनारायण बनाम उत्तर प्रदेश’ नाम से जाना जाता है वह मुकदमा जिसने इंदिरा गांधी को इतना भयभीत कर दिया कि उन्होंने आपातकाल लगा दिया आज से 44 साल पहले आए एक ऐतिहासिक फैसले ने एक साल से आंदोलनरत विपक्ष को वह ‘ऑक्सीजन’ दे दी थी जिसे उसे तलाश थी. इसी फैसले ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को देश में आपातकाल लगाने पर मजबूर कर दिया था. जिस मुकदमे में यह फैसला आया था उसे ‘राजनारायण बनाम उत्तर प्रदेश’ नाम से जाना जाता है। इस मुकदमे में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी को चुनावों में धांधली का दोषी पाया था. 12 जून 1975 को सख्त जज माने जाने वाले जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने अपने निर्णय में उनके रायबरेली से सांसद के रूप में चुनाव को अवैध करार दे दिया. अदालत ने साथ ही अगले छह साल तक उनके कोई भी चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी. ऐसी स्थिति में इंदिरा गांधी के पास राज्यसभा में जाने का रास्ता भी नहीं बचा. अब उनके पास प्रधानमंत्री पद छोड़ने के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं था. कई जानकार मानते हैं कि 25 जून, 1975 की आधी रात से आपातकाल लागू होने की जड़ में यही फैसला था. मार्च 1971 में हुए आम चुनावों में कांग्रेस पार्टी को जबरदस्त जीत मिली थी. कुल 518 सीटों में से कांग्रेस को दो तिहाई से भी ज्यादा (352) सीटें हासिल हुई. इससे पहले कांग्रेस पार्टी के लगातार बंटते रहने से इसकी आंतरिक संरचना कमजोर हो गई थी. ऐसे में पार्टी के पास इंदिरा गांधी पर निर्भर होने के सिवा दूसरा कोई चारा नहीं रह गया था. इंदिरा गांधी की छवि बैंकों के राष्ट्रीयकरण और ‘प्रिवी पर्स’ (राजपरिवारों को मिलने वाले भत्ते) खत्म करने जैसे फैसलों से गरीबों के समर्थक के रूप में बन गई थी. माना जाता है कि वे बहुत सोच समझकर अपनी छवि को ‘गरीबों के मसीहा’ के रूप में गढ़ रही थीं. अपने सलाहकार और हिंदी के प्रसिद्ध कवि श्रीकांत वर्मा द्वारा रचे गए ‘गरीबी हटाओ’ का नारा देकर वे आम चुनावों में उतरीं. जनता को उनकी नई छवि से काफी उम्मीद हो चली थी सो उसने इंदिरा गांधी को एक बार फिर प्रचंड बहुमत से देश का नेतृत्व सौंप दिया। इस चुनाव में इंदिरा गांधी लोकसभा की अपनी पुरानी सीट यानी उत्तर प्रदेश के रायबरेली से एक लाख से भी ज्यादा वोटों से चुनी गई थीं. लेकिन इस सीट पर उनके प्रतिद्वंदी और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के प्रत्याशी राजनारायण ने उनकी इस जीत को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी. यह मुकदमा ‘इंदिरा गांधी बनाम राजनारायण’ के नाम से घ्चर्चित हुआ. राजनारायण उत्तर प्रदेश के वाराणसी के प्रखर समाजवादी नेता थे. उनके इंदिरा गांधी से कई मसलों पर नीतिगत मतभेद थे. इसलिए वे कई बार उनके खिलाफ रायबरेली से चुनाव लड़े और हारे. 1971 में भी उन्हें यहां हार का मुंह देखना पड़ा. लेकिन उन्होंने इंदिरा गांधी की इस जीत को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी। हाईकोर्ट में दायर अपनी याचिका में राजनारायण ने इंदिरा गांधी पर भ्रष्टाचार और सरकारी मशीनरी और संसाधनों के दुरुपयोग करने का आरोप लगाया. राजनारायण के वकील शांतिभूषण थे. उन्होंने कहा कि इंदिरा गांधी ने चुनाव प्रचार में सरकारी कर्मचारियों का इस्तेमाल किया. शांतिभूषण ने इसके लिए प्रधानमंत्री के सचिव यशपाल कपूर का उदाहरण दिया जिन्होंने राष्ट्रपति से अपना इस्तीफा मंजूर होने से पहले ही इंदिरा गांधी के लिए काम करना शुरू कर दिया था। अदालत ने इस आधार पर ही इंदिरा गांधी की सांसदी को घ्खारिज किया. जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने अपने फैसले में माना कि इंदिरा गांधी ने सरकारी मशीनरी और संसाधनों का दुरुपयोग किया इसलिए जनप्रतिनिधित्व कानून के अनुसार उनका सांसद चुना जाना अवैध है. हालांकि अदालत ने कांग्रेस पार्टी को थोड़ी राहत देते हुए ‘नई व्यवस्था’ बनाने के लिए तीन हफ्तों का वक्त दे दिया. साथ ही उसने इंदिरा गांधी को भ्रष्टाचार के आरोप से भी मुक्त कर दिया था। राजनीतिक जानकारों के अनुसार कांग्रेस पार्टी ने इलाहाबाद हाइकोर्ट के इस फैसले पर खूब माथापच्ची की. लेकिन उस समय पार्टी की जो स्थिति थी उसमें इंदिरा गांधी के अलावा किसी और के प्रधानमंत्री बनने की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी. कहा जाता है कि ‘इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया’ का नारा देने वाले कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष डीके बरुआ ने इंदिरा गांधी को सुझाव दिया कि अंतिम फैसला आने तक वे कांग्रेस अध्यक्ष बन जाएं. बरुआ का कहना था कि प्रधानमंत्री वे बन जाएंगे। लेकिन कहते हैं कि जिस समय प्रधानमंत्री आवास पर यह चर्चा चल रही थी घ्उसी समय वहां इंदिरा गांधी के पुत्र संजय गांधी आ गए. उन्होंने अपनी मां को किनारे ले जाकर सलाह दी कि वे इस्तीफा न दें. उन्होंने इंदिरा गांधी को समझाया कि प्रधानमंत्री के रूप में पार्टी के किसी भी नेता पर भरोसा नहीं किया जा सकता. संजय ने उन्हें कहा कि पिछले आठ सालों में खासी मशक्कत से उन्होंने पार्टी में अपनी जो निष्कंटक स्थिति हासिल की है, उसे वे तुरंत खो देंगी. जानकारों के अनुसार इंदिरा गांधी अपने बेटे के तर्कों से सहमत हो गई. उन्होंने तय किया कि वे इस्तीफा देने के बजाय बीस दिनों की मिली मोहलत का फायदा उठाते हुए इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देंगी। 11 दिन बाद 23 जून को इंदिरा गांधी ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देते हुए दरख्वास्त की कि हाईकोर्ट के फैसले पर पूर्णतः रोक लगाई जाए. अगले दिन सुप्रीम कोर्ट की ग्रीष्मकालीन अवकाश पीठ के जज जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर ने अपने फैसले में कहा कि वे इस फैसले पर पूर्ण रोक नहीं लगाएंगे. सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें प्रधानमंत्री बने रहने की अनुमति तो दे दी, लेकिन कहा कि वे अंतिम फैसला आने तक सांसद के रूप में मतदान नहीं कर सकतीं. कोर्ट ने बतौर सांसद इंदिरा गांधी के वेतन और भत्ते लेने पर भी रोक बरकरार रखी। यही वह समय भी था जब गुजरात और बिहार में छात्रों के आंदोलन के बाद देश का विपक्ष कांग्रेस के खिलाफ एकजुट हो चुका था. लोकनायक कहे जाने वाले जयप्रकाश नारायण यानी जेपी पूरे विपक्ष की अगुआई कर रहे थे. वे मांग कर रहे थे कि बिहार की कांग्रेस सरकार इस्तीफा दे दे. वे केंद्र सरकार पर भी हमलावर थे. ऐसे में कोर्ट के इस फैसले ने विपक्ष को और आक्रामक कर दिया. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अगले दिन यानी 25 जून को दिल्ली के रामलीला मैदान में जेपी की रैली थी. जेपी ने इंदिरा गांधी को स्वार्थी और महात्मा गांधी के आदर्शों से भटका हुआ बताते हुए उनसे इस्तीफे की मांग की. उस रैली में जेपी द्वारा कहा गया रामधारी सिंह दिनकर की एक कविता का अंश अपने आप में नारा बन गया है. यह नारा था- सिंहासन खाली करो कि जनता आती है. जेपी ने कहा कि अब समय आ गया है कि देश की सेना और पुलिस अपनी ड्यूटी निभाते हुए सरकार से असहयोग करे. उन्होंने कोर्ट के इस फैसले का हवाला देते हुए जवानों से आह्वान किया कि वे सरकार के उन आदेशों की अवहेलना करें जो उनकी आत्मा को कबूल न हों.
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि कोर्ट के फैसले के बाद इंदिरा गांधी की स्थिति नाजुक हो गई थी. सुप्रीम कोर्ट ने भले ही उन्हें पद पर बने रहने की इजाजत दे दी थी, लेकिन समूचा विपक्ष सड़कों पर उतर चुका था. आलोचकों के अनुसार इंदिरा गांधी किसी भी तरह सत्ता में बने रहना चाहती थीं और उन्हें अपनी पार्टी में किसी पर भरोसा नहीं था. ऐसे हालात में उन्होंने आपातकाल लागू करने का फैसला घ्किया. इसके लिए उन्होंने जयप्रकाश नारायण के बयान का बहाना लिया. 26 जून, 1975 की सुबह राष्ट्र के नाम अपने संदेश में इंदिरा गांधी ने कहा, ‘आपातकाल जरूरी हो गया था. एक ‘जना’ सेना को विद्रोह के लिए भड़का रहा है. इसलिए देश की एकता और अखंडता के लिए यह फैसला जरूरी हो गया था.’
भारत के इतिहास और राजनीति के लगभग सभी विद्वान एकमत हैं कि इंदिरा गांधी के खिलाफ आए इलाहाबाद हाईकोर्ट के इस फैसले ने देश का राजनीतिक इतिहास निर्धारित करने में अहम भूमिका निभाई. कुछ तो यहां तक मानते हैं कि यदि यह फैसला इंदिरा गांधी के खिलाफ न जाता तो देश में शायद ही आपातकाल लगाने की नौबत आती.