बोधगया में भगवान बुद्ध को हुई थी ज्ञान की प्राप्ति, जानें महत्व

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देश के बिहार राज्य में स्थित बौद्ध गया शहर में बना महाबोधि मंदिर बौद्ध धर्म का सबसे महत्वपूर्ण केन्द्र और पवित्र स्थानों में माना जाता है। यहीं पर बोधि वृक्ष के नीचे गौतम बुद्ध को केवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। यह मंदिर वास्तुकला व बौद्ध धर्म की परम्पराओं का सुन्दर नमूना है। विभिन्न धर्मों एवं सम्प्रदायों के लोग यहां आध्यात्मिक शांति की तलाश में आते हैं। 19वीं सदी में ब्रिटिश पुराविद् कनिंघम तथा भारतीय पुराविद् डॉ. राजेन्द्र लाल के निर्देशन में 1883 ई. में यहां खुदाई की गई और काफी मरम्मत के बाद मंदिर के पुराने वैभव को स्थापित किया गया। ऐतिहासिक एवं धार्मिक बौद्ध मंदिर को वर्ष 2002 ई. में यूनेस्को द्वारा विश्व विरासत सूची में शामिल कर इसे विश्व विरासत घोषित किया गया। यहां देश के ही नहीं पूरे विश्व के पर्यटक खास कर बौद्ध मत में विश्वास रखने वाले धर्मावलम्बी बड़ी संख्या में यहां आते हैं। यह मंदिर विश्व के मानचित्र पर अपना विशेष धार्मिक महत्व रखता है।

मंदिर का निर्माण सम्राट अशोक द्वारा किया गया था। मंदिर में भगवान बुद्ध की पद्मासन मुद्रा में भव्य मूर्ति स्थापित है। जनश्रुति के अनुसार यह मूर्ति उसी जगह स्थापित है जहां बुद्ध को कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। मंदिर के चारों ओर पत्थर की नक्काशीदार रेलिंग लगी है जो प्राचीन अवशेष है। मंदिर की दक्षिण दिशा में 15 फीट ऊँचा अशोक स्तम्भ नजर आता है जो कभी 100 फीट ऊँचा था। मंदिर पेगोडानुमा बहुअलंकृत आर्य एवं द्रविड शैली में 170 फीट ऊँचा है।
मंदिर परिसर में उन सात स्थानों को भी चिन्हित किया गया है जहां बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद सात सप्ताह व्यतीत किये थे। मुख्य मंदिर के पीछे बुद्ध की सात फीट ऊँची लाल बलुआ पत्थर की विराजन मुद्रा में मूर्ति स्थापित है। मूर्ति के चारों ओर लगे विभिन्न रंगों के पताके मूर्ति को आकर्षक बनाते हैं। मूर्ति के आगे बलुआ पत्थर पर बुद्ध के विशाल पदचिन्ह बने हैं, जिन्हें धर्म चक्र परिवर्तन का प्रतीक माना जाता है। यहां बुद्ध ने पहला सप्ताह बिताया था। परिसर में स्थित बोधि वृक्ष एवं खड़ी अवस्था में बनी बुद्ध की मूर्ति स्थल को अनिमेश लोचन कहा जाता है। यह चैत्य मंदिर के उत्तर−पूर्व में बना है जहां बुद्ध ने दूसरा सप्ताह व्यतीत किया था। इस स्थल पर 16 जनवरी 1993 को श्रीलंका के राष्ट्रपति रणसिंधे प्रेमादास द्वारा सोने का जंगला एवं सोने की छतरी का निर्माण करा कर इसे आकर्षक स्वरूप प्रदान किया। मुख्य मंदिर का उत्तरी भाग चंकामाना नाम से जाना जाता है जहां काले पत्थर का कमल का फूल बुद्ध का प्रतीक बना है जहां बुद्ध ने तीसरा सप्ताह बिताया था।
छत विहीन भग्नावशेष स्थल रत्न स्थान पर बुद्ध ने चौथा सप्ताह व्यतीत किया था। जनश्रुति के अनुसार बुद्ध यहां गहन चिन्तन में लीन थे तब उनके शरीर से प्रकाश की एक किरण निकली थी। प्रकाश की किरणों के इन्हीं रंगों का उपयोग विभिन्न देशों द्वारा यहां लगे पताके में किया जाता है। मुख्य मंदिर के उत्तरी दरवाजे से थोड़ी दूर स्थित अजयपाल वटवृक्ष के नीचे बुद्ध ने पाँचवां सप्ताह व्यतीत किया था। मंदिर के दांई ओर स्थित मुचलिंद सरोवर जो चारों तरफ से वृक्षों से घिरा है और सरोवर के मध्य में बुद्ध की मूर्ति स्थापित है जिसमें विशाल सर्प को बुद्ध की रक्षा करते हुए बताया गया है। यहां बुद्ध ने छठा सप्ताह व्यतीत किया था। परिसर के दक्षिण−पूर्व में स्थित राजयातना वृक्ष के नीचे बुद्ध ने सातवां सप्ताह व्यतीत किया था।
बोध गया घूमने का सबसे अच्छ समय अप्रैल−मई में आने वाली बुद्ध जयंति का अवसर है जब यहां सिद्धार्थ का जन्मदिन विशेष उत्साह एवं परम्परा के साथ मनाया जाता है। इस दौरान मंदिर को हजारों मोमबत्तियों से सजाया जाता है तथा जलती हुई मोमबत्तियों से उत्पन्न दृश्य मनुष्य के मानस पटल पर अंकित हो जाता है।
बौद्ध गया में 1934 ई. में बना तिब्बतियन मठ, 1936 में बना बर्मी विहार तथा इसी से लगा थाईमठ, इंडोसन−निप्पन−जापानी मंदिर, चीनी मंदिर एवं भूटानी मठ पर्यटकों के लिए दर्शनीय स्थल हैं। बौद्ध गया में स्थित पुरातात्विक संग्रहालय अपने आप में बेजोड़ है।
राजगीर
राजगीर बोध गया के समीप होने से सैलानियों को यहीं से राजगीर दर्शन का कार्यक्रम बनाना चाहिए। राजगीर वैभार, विपुलाचल, रत्नगिरी, उदयगिरी, सोनगिरी, पंच पहाड़ियों से घिरा बिहार का विश्व प्रसिद्ध धार्मिक एवं प्राकृतिक स्थल है। राजगीर पटना के दक्षिण−पश्चिम दिशा में 102 कि.मी. दूरी पर तथा नालन्दा से दक्षिण दिशा में 15 कि.मी. दूरी पर स्थित है। यहां भगवान गौतम बुद्ध एवं महावीर स्वामी उपदेश देते थे। यहां पर करीब एक हजार फीट ऊँची खूबसूरत पंच पहाड़ी दर्शनीय है। वैभार पहाड़ी पर पूर्व की ओर गर्म जल के झरने एवं 22 कुण्ड बने हैं जिनमें सप्तधारा, ब्रह्मकुण्ड तथा सूर्यकुण्ड प्रमुख हैं। इसी पहाड़ी पर 81 गुणा 68 फीट वर्गाकार फीट का जरासंघ अखाड़ा भी दर्शनीय है। इसी पहाड़ी पर गरम जल के झरने से एक कि.मी. दूर स्थित मनियार मठ तथा पर्वत के ऊपर स्थित सप्तवर्णी गुफा स्थित है। चट्टानों से बनी गुफा सकरी लम्बी गुफा है जहां बुद्ध की मृत्यु के बाद पहली सभा की गई थी। रत्नगिरी पर्वत पर 103 फीट व्यास का तथा 120 फीट ऊँचा संगमरमर से बना विश्व शांति स्तूप प्रमुख आकर्षण है। स्तूप के ऊपर चारों ओर विभिन्न मुद्राओं में भगवान बुद्ध की सुनहरी प्रतिमाएं लगी हैं। स्तूप का निर्माण जापान बौद्ध संघ के अध्यक्ष फूजी ने करवाया था। यहां वेणुवन एवं वीरायतन संग्रहालय भी देखने योग्य है।
नालन्दा
राजगीर से 13 कि.मी. दूरी पर स्थित है नालन्दा। यहां शिक्षा के लिए विश्वविद्यालय की स्थापना सम्राट अशोक के समय में की गई जो शिक्षा का एक महान केन्द्र बना। यहां विदेशों से भी विद्यार्थी शिक्षा के लिए आते थे। माना जाता है कि नालन्दा विश्वविद्यालय विश्व का सबसे पुराना विश्वविद्यालय है। चीनी यात्री हेनसांग ने स्वयं यहां 12 वर्ष रह कर शिक्षा प्राप्त की। आज यहां पर्यटकों के लिए इसके अवशेष के रूप में छात्रों के रहने का स्थल, मठ, स्तूप, दर्शनीय हैं। विश्वविद्यालय के मध्यम में स्मारक दीवार, बाग, व्याख्यान भवन, डॉरमेट्री, चिन्तन कक्ष, कुआं, महाविहार, आर्ट गैलेरी एवं पुरातत्व संग्रहालय दर्शनीय हैं। सरकार ने यहां 1956 ई. में पाली अनुसंधान केन्द्र स्थापित किया जिसे ‘नव नालन्दा महाविहार’ कहते हैं। यहां पाली एवं बौद्ध शिक्षण की स्नातकोत्तर तक शिक्षा प्रदान की जाती है। यहां इन्दिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय भी संचालित है। बड़गाँव नामक स्थान पर एक सुन्दर मंदिर एवं जलाशय भी दर्शनीय हैं। यह स्थान पटना के निकट होने से यहीं से इसके भ्रमण का कार्यक्रम बनाया जा सकता है।
पावापुरी
नालन्दा से 5 कि.मी. दूर तथा पटना से 80 कि.मी. दूर पश्चिम दिशा में रांची मार्ग पर स्थित है, जैनियों का प्राचीन तीर्थ पावापुरी। बताया जाता है कि जब भगवान महावीर स्वामी के शरीर की पवित्र भस्म को उनके भक्तों ने उठा लिया था, स्थिति ऐसी बन गई कि भस्म खत्म हो गई तब लोग भस्म से छुई मिट्टी को ही साथ ले गये। वह स्थान जल्द ही एक खड्डे में बदल गया और वहां से जल धारा बह निकली। इसी याद में यहां कमल सरोवर का निर्माण किया गया। यह सरोवर पुष्पों से खूबसूरत नजर आता है। यहां बने मंदिर में भगवान महावीर के पद चिन्ह की छाया पूजनीय है। इसके निकट ही पीर मखदूम शाह की समाधि भी बनी है।