कथाकार ज्ञानरंजन 88 के हो गए। नई पीढ़ी की डिजिटल समझ शायद यह पढ़कर उन्हें गूगल में सर्च करने लगेगी। पर जबलपुर और देश-विदेश में उनके समकालीन और आगे-पीछे की तीन पीढ़ियां उनके अवदानों से ज्यादा उनके करिश्माई व्यक्तित्व के प्रभामंडल से आज तक नहीं उबर पाई हैं। एक जीवन कितना सहेज सकता है, बांट सकता है, लिपिबद्ध कर सकता है ज्ञानरंजन इसके एक बेशकीमती उदाहरण हैं। एक गांधीवादी साहित्यसेवी परिवार की संतान हैं ज्ञानरंजन।
बचपन में चंचल स्वाभाव के थे तो किशोर वय और युवा अवस्था में उनका स्वर विद्रोही रहा। विचारों में विद्रोह, सामाजिक पैमानों के प्रति विद्रोह, अंतरंग रिश्तों के प्रति दृष्टिगत विद्रोह। उनके सारे नजरिए बिलकुल अलहदा थे। उसी से निकलकर आया कथाकार ज्ञानरंजन। जिनकी रचनाधर्मिता ने पिछली सदी के साठ के दशक की कहानियों को क्रांतिकारी मोड़ दिया।
काल्पनिक कहानियों के दौर में उनके कथानक की साफगोई लेखन में परिवर्तन के संकेत बन गए जो आज भी दिशासूचक यंत्र बने हुए हैं। वैसे उनके जीवन का बड़ा हिस्सा हिन्दी की प्रोफेसरी में गुजरा। शेष पत्रिका पहल के संकलन संयोजन और संपादन में।
इन्हीं के समानांतर उनकी कलम साहित्य और पत्रकारिता में प्रयोगधर्मिता और बोधगम्यता के साथ चलती रही। उम्र के इस पड़ाव पर किसी भी व्यक्ति का आकलन बहुत आसान हो जाता है। जीवन को टुकड़ों में नही देखा जा सकता है। और ये कसौटी समय सापेक्ष खरी भी नहीं उतरेगी। जीवन का समग्र आकलन ही व्यक्ति का सच्चा और निष्पक्ष आकलन होता है। ज्ञानरंजन का आरंभ एक अनगढ़ता और उनकी वैचारिक ऊहापोह के बीच होता है जो शनैः शनैः स्थिरता प्राप्त करता चला गया। स्वाध्याय के प्रति उनके आग्रह,उत्सुकता और प्रयासों से वे वैश्विक साहित्य के प्रति आर्कषित हुए वहीं पारिवारिक परिवेश और पिता रामनाथ “सुमन”का लेखकीय दृष्टिकोण उनका मार्गदर्शक बना रहा। अध्ययन और अध्यापन उनका प्रिय शगल है। अध्यापन की उनकी अपनी एक विशिष्ट शैली थी जो उन्हें अपने समकालीन शिक्षकों से इतर एक वैशिष्ट्य प्रदान करती है। बिना किताबी सहारा लिए धारा प्रवाही अभिव्यक्ति उस पीढ़ी के छात्रों को आज भी चमत्कृत करती है। अनुभवों का एक ठोस धरातल उन्होंने अपने सिनैमेटिक विजन से तैयार किया और यथार्थ की कसौटी पर कसा तभी उनके शब्द उनके विचार उनकी शैली लेखन और वाचन निराला और मर्मस्पर्शी होता है। कह सकते हैं ये रेयरेस्ट आफ रेयर के पास होता है। कभी कामरेड कहलाने वाले ज्ञानरंजन मार्क्सवादी चिंतन के थिंक टैंक थे। मार्क्स, लेनिन और अन्य रूसी लेखकों के अनुगामी भी थे। लेकिन आज वे समाजवादी जीवन शैली का हिस्सा प्रतीत होते हैं। पर ये यू टर्न नहीं है वरन उनके वैचारिक परिवर्तन का क्रमिक सोपान है।
पिता सुमनजी देश के श्रेष्ठ अनुवादकों में एक थे। घर पर उनके समकालीन शब्द शिल्पियों का आना जाना लगा रहता था उन्हीं के सानिध्य में ज्ञानरंजन खुद को तराश रहे थे। निखर रहे थे प्रखर हो रहे थे। अकोला में वे पैदा हुए। इलाहाबाद (प्रयागराज) में परवरिश। फिर जबलपुर को कृतित्व और व्यक्तित्व से पहचान दी फिर इसी शहर की पहचान बन गए और अंततः यहीं के हो गए। पहल का संपादन उनकी स्वत: स्फूर्त पहल था जो आज संग्रहालयीन संपत्ति बन चुका है। उत्कृष्टता इस पत्रिका की पहचान है। देश और काल की सीमाओं का अतिक्रमण, नव लेखकों की पड़ताल ज्ञानरंजन की एकाकी साधना से ही संभव हो सका। उनका श्रेष्ठतम जनसंपर्क भी इसके प्रकाशन में सहभागी बना। एक दौर उनकी पत्रकारिता का भी लोगों ने देखा जब शहर में ज्ञानयुग अखबार निकला तब सोशल मीडिया का दौर नहीं था कंधे पर थैली, जीन्स पर खड़े कॉलर वाला कुर्ता पैरों में सामान्य चप्पलें पहने ज्ञानरंजन आर्कषण का केन्द्र हुआ करते थे। मिलनसारिता, लोगों की हौसला अफजाई करना, उनके तार्किक ज्ञान से ऊपर नजर आता था। कुछ लोगों की बहस का विषय होता है ज्ञानरंजन कथाकार अच्छे हैं या संपादक। कथानक अनुभवों से बेहतर बनता है और संपादकत्व समीचीन हो तो अच्छा लगता है। उनके पास दोनों में महारत है। पर मुझे लगता है ज्ञानरंजन यदि आलोचक होते तो श्रेष्ठतम आलोचकों में उनका शुमार होता। पर आलोचक कभी भी प्रभावी लेखक नहीं हो सकता है। ऐसे में शायद हम सभी उनके लेखन, चिंतन, और वृक्तत्व प्रस्तुतियों से वंचित रह जाते। सोवियत लैंड पुरुस्कार, मैथलीशरण सम्मान, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय की मानद डाक्टरेट, गुलजार के हाथों प्रदत्त अमर उजाला का सम्मान और उनके लेखन पर हुए अनेकों प्रकाशन से दूर ज्ञानरंजन अपने चुम्बकीय आर्कषण से चीन्हैं जाते हैं। साल दर साल उन्हें एक नए एंगल से देखा जा सकता है हर बार उनमें कुछ नया मिल जाता है, और कुछ बाकी रह जाता है। बहरहाल उनकी मौजूदगी और उम्र के नवमें दशक का ये जन्मदिवस (21 नवंबर) उनके चाहने वालों और आलोचकों के लिए उपहार है।