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सर्वधर्म समभाव और अड़चन

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भारत वर्ष एक बहुलतावादी राष्ट्र है, जिस पर बहुत से लोग गर्व महसूस करते हैं। एक समृद्ध, सुखी और शांत राष्ट्र के निर्माण के लिए यह जरूरी तत्व है। किन्तु हमें यह भी समझना होगा कि भारत में इस सहिष्णुता की नींव क्या है और अड़चनें क्या हैं। हिन्दू या सनातन चिंतन परंपरा इसके मूल में है जो स्वभाव से समावेशी और बहुलता वादी है, जिसका मानना है कि ”ईश्वर एक ही है और उसे अपनी अपनी आस्था और समझ के अनुरूप भिन्न-भिन्न रूपों में माना जा सकता।” सनातन परंपरा हजारों वर्षों में विकसित हुई है और विकसित होती जा रही है। यही हिन्दू या सनातन परंपरा की खूबी है कि यह सतत विकासमान है और इसमें नए-नए ज्ञान को समावेशित करने की छूट है क्योंकि इसका विकास ही शास्त्रार्थ और गहन चिंतन से उपजे विभिन्न दर्शनों के आधार पर हुआ है।

वर्तमान में इसमें प्राचीनतम जादू टोने वाले समाज के तत्वों से लेकर सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा के तत्व एक साथ खुशी से पनपते चले आ रहे हैं। बौद्ध धर्म के रूप में भले ही लुप्त हो गया हो किन्तु उसके बहुत से तत्व भारतीय चिंतन में समाविष्ट हो चुके हैं। जैन और अनेक संतों के मत भी फल-फूल रहे हैं। चैतन्य महाप्रभू का संकीर्तन भक्तिमार्ग हो या कबीर का निर्गुण ब्रह्म की उपासना हो, दादू पन्थ, रैदास पंथ, गोरख पंथ आदि अनेक दर्शन थोड़े-थोड़े भेद के साथ स्वीकृत और जनमानस में आत्मसात हो चुके हैं। अनेक आदिवासी समुदायों के विभिन्न मत भी मान्य हैं, जिन सब में कुछ तत्व सांझे हैं। जिनमें सबसे महत्वपूर्ण है दूसरे के मत को भी अपने जितना आदर देना। इनमें से कुछ तो नास्तिक वाद के भी पास हैं, कुछ बहु देव वादी हैं, कुछ एकेश्वर वादी हैं। किन्तु इनका एकेश्वर वाद भी अब्रह्मिक धर्मों की तरह बहुदेव वाद और साकार उपासना को घृणा की दृष्टि से नहीं देखता बल्कि यह समझ कर मान्यता देता है कि मनुष्य की आंतरिक विकास की सीढ़ियों में यह भी एक सीढ़ी है और यह विकास की प्रक्रिया चलती रहनी चाहिए।

धीरे-धीरे साकार पूजा और बहु देव वाद आंतरिक विकास के साथ-साथ एकेश्वर वाद और निराकार उपासना तक पहुंच ही जाते हैं, किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं की जब हम डाक्टरेट कर लें तो पहली-दूसरी श्रेणी के विद्यालयों से नफरत करने लग जाएं। समाज में लोग आते रहेंगे और छोटे विद्यालयों की जरूरत बनी ही रहेगी। जब व्यक्ति ज्ञान हासिल कर लेता है तो उसे पुस्तक पेन्सिल की जरूरत नहीं रहती तो क्या उन्हें तोड़ दें, नहीं कभी नहीं, बल्कि जिन्हें उनकी जरूरत है उन्हें दे दें। सनातन धर्म में जीवन के दो विभाग हैं। एक प्रवृत्ति मार्ग और दूसरा निवृत्ति मार्ग। प्रवृति मार्ग का लक्ष्य है, सांसारिक जीवन को सफलता से जीने वाले नियमों को मानना और उन पर चलते हुए अपने और समाज के जीवन को सफल बनाने का प्रयास करते रहना।

इसका फल है, अपने कर्मों के अनुसार बार-बार जन्म लेते रहना। यह एक सतत प्रक्रिया के रूप में चलता रहता है। दूसरा है निवृत्ति मार्ग- इस मार्ग पर वे लोग चलते हैं जो सुख दुःख के झमेले से बाहर निकल जाना चाहते हैं। वे मोक्ष की कामना करते हैं। और उसी के लिए विभिन्न साधना करते हैं। मोक्ष को सबसे उत्तम लक्ष्य माना जाता है। बौद्ध इसको थोड़ा बहुत हेरफेर से निर्वाण कहते हैं। इस तरह पूरे ताने-बाने में ही सब धर्मों को मानने वालों के प्रति श्रद्धा का भाव पैदा हो जाता है। सनातनी संस्कार वाला समाज किसी दूसरे धर्म के प्रति घृणा के भाव से ऊपर उठ चूका है। वह दूसरे धर्म को घटिया या छोटा साबित करने के चक्कर में कभी नहीं पड़ता। न ही दूसरे धर्म को मानने वाले को अपना धर्म छोड़ कर सनातनी बन जाने को कहता है। बल्कि उसका मानना तो यह है कि न अपना धर्म छोड़ो और न दूसरे का धर्म छुडाओ, क्योंकि रस्ते अलग-अलग हैं पर अंत में सभी को वहीं पहुंचना है तो झगड़ा क्यों।

किन्तु जब अब्रह्मिक धर्मों से पाला पड़ा तो स्थितियां बदल गईं। उनका पहला लक्ष्य ही दूसरे के धर्म पर टीका-टिप्पणी करके धर्मांतरण करवा कर अपने धर्म में लाना है। इसके लिए दूसरे के धर्म को घटिया साबित करना जरूरी है। इसी धंधे में जाकिर नाईक और उन जैसे अनेक धर्म गुरु लगे रहते हैं। उनके लिए यह पुण्य का कार्य है। इसके लिए बाकायदा संस्था गत कार्य की व्यवस्था की जाती है। तबलीग जैसी संस्थाएं यही कार्य करती रहती हैं। इसी तरह ईसाई मिशनरियां भी यही काम करती रहती हैं। अब्रह्मिक धर्मों के कुछ अच्छे नियम हैं जिन्हें फर्ज कहा जाता है। जो एक पुस्तक पर आधारित हैं। उनमें अपने धर्म की श्रेष्ठता का भाव भी कूट-कूट कर भरा जाता है जिससे अन्य धर्मों के साथ उनका टकराव होना स्वाभाविक हो जाता है। उनके लिए दूसरे का धर्म छुड़वा कर अपने धर्म में लाना पुण्य का काम है। इस्लाम और ईसाई धर्म में धर्मान्तरण के तरीकों में थोडा अंतर जरूर है। ईसाईयों ने सेवा और लालच का प्रयोग ज्यादातर किया।

इस्लाम ने शक्ति और शासन के दबाव का प्रयोग किया। आज भी भारत में यह क्रम तो जारी ही है। इससे सनातनी मानस में खतरे की अनुभूति होती है। अविश्वास बढ़ता है। अविश्वास ही सबसे बड़ी फूट की वजह है, जिससे भारत को पार पाना होगा। अब 20 करोड़ और 100 करोड़ लोग कब तक आपसी द्वेष में एक-दूसरे को हानि पहुंचाने के रास्ते पर चलते रहेंगे। भारतीय दक्षिण पंथ भी कई बार अतिवादी प्रतिक्रिया करने लग पड़ा है। किन्तु यह प्रतिक्रिया है। यह समझना होगा। क्रिया नहीं होगी तो प्रतिक्रिया भी नहीं होगी। एक धर्मांतरण करेगा और दूसरा घरवापसी करेगा। इससे अंदर-अंदर दुर्भावना तो फैलेगी।

धर्म की स्वतंत्रता का अर्थ अपने धर्म का धर्मांतरण के लिए प्रचार की छूट के रूप में लेना गलत है। प्रचार का अर्थ होना चाहिए अपने-अपने धर्म की अच्छी-अच्छी बातें समझा कर बेहतर समाज बनाने की कोशिश करना। आचार्य विनोबा भावे जी ने कहा है कि मेरा लक्ष्य यह नहीं है कि मैं मुसलमान को या ईसाई को हिन्दू बनाने का कार्य करूं बल्कि मैं तो हिन्दू को बेहतर हिन्दू, मुसलमान को बेहतर मुसलमान और ईसाई को बेहतर ईसाई बनाना चाहूंगा। यह सोच सब स्वीकार कर लें तो आपसी फूट और अविश्वास का बड़ा कारण समाप्त हो जाएगा। धर्मांतरण बंद होगा तो एक-दूसरे के धर्म की निंदा की जरूरत भी नहीं रहेगी। अगर मिल बैठ कर सोचें तो कठिन हरगिज नहीं है।