Home संपादकीय पितृ पक्ष पर विशेषः श्रद्धा के बिना अधूरा है श्राद्ध

पितृ पक्ष पर विशेषः श्रद्धा के बिना अधूरा है श्राद्ध

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हिन्दू धर्म में पितृ पक्ष (श्राद्ध) को अहम माना गया है। श्राद्ध का अर्थ होता है ‘श्रद्धापूर्वक।’ हमारे संस्कारों और पूर्वजों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने को ही श्राद्ध कहा जाता है। सरल शब्दों में कहें तो दिवंगत परिजनों को उनकी मृत्यु तिथि पर श्रद्धापूर्वक याद किया जाना ही श्राद्ध है। ब्रह्मपुराण के अनुसार उचित काल या स्थान पर पितरों के नाम जो भी वस्तु उचित विधि द्वारा श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दी जाए, वह श्राद्ध कहलाता है। पितृ पक्ष को हिन्दू धर्म में ‘महालय’ या ‘कनागत’ के नाम से भी जाना जाता है। माना जाता है कि पितृ पक्ष के दौरान पिंडदान, तर्पण कर्म और ब्राह्मण को भोजन कराने से पूर्वज प्रसन्न होकर आशीर्वाद देते हैं। पितृ पक्ष में लोग अपने पूर्वजों को याद कर उनकी आत्मा की शांति के लिए श्राद्ध कर्म, पिंडदान और तर्पण करते हैं।

हिन्दू धर्म में मृत्यु के पश्चात् पितरों की याद में श्राद्ध किया जाता है और उनकी मृत्यु की तिथि के अनुसार ही श्राद्ध की तिथि निर्धारित की जाती है। पिंडदान करने के लिए हरिद्वार और गया को सर्वोत्तम माना गया है। वैसे हिन्दू धर्म के अलावा ईसाई, इस्लाम और बौद्ध धर्म में भी अपने पूर्वजों को याद रखने की प्रथा है। पश्चिमी जगत में जहां पूर्वजों की स्मृति में मोमबत्तियां जलाने की प्रथा है, वहीं ईसाई धर्म में व्यक्ति के निधन के चालीस दिनों पश्चात् सामूहिक भोज की रस्म की जाती है। इस्लाम में चालीस दिनों बाद कब्र पर फातिहा पढ़ने और बौद्ध धर्म में भी पूर्वजों की याद में कुछ ऐसे ही प्रावधान देखने को मिलते हैं।

हिन्दू धर्म में मान्यता है कि पितृ पक्ष के दिनों में यमराज आत्मा को मुक्त कर देते हैं ताकि वे अपने परिजनों के यहां जाकर तर्पण ग्रहण कर सकें। ऐसी ही मान्यताओं के अनुसार पितृ पक्ष के दिनों में पितर नीचे पृथ्वी पर आते हैं और बिना किसी आह्वान के अपने वंशजों के घर किसी भी रूप में जाते हैं। ऐसे में यदि उन्हें तृप्त नहीं किया जाए तो उनकी आत्मा नाराज होकर अतृप्त लौट जाती है। माना गया है कि यदि पितर नाराज हो जाएं तो जिंदगी मुसीबतों से भर जाती है। इसलिए शास्त्रों में पितरों का श्राद्ध विधिपूर्वक करना जरूरी बताया गया है। मान्यता है कि यदि पितर खुशी-खुशी वापस जाते हैं तो अपने वंशजों को दिए गए उनके आशीर्वाद से घर-परिवार में सुख-समृद्धि में बढ़ोतरी होती है।

पितृ पक्ष के दौरान शुभ और मांगलिक कार्य वर्जित रहते हैं। पितृ पक्ष में सगाई, विवाह, मुंडन, गृहप्रवेश, परिवार के लिए महत्वपूर्ण चीजों की खरीददारी, नए कपड़े खरीदना, नया कार्य शुरू करना इत्यादि कोई भी शुभ कार्य करना अच्छा नहीं माना जाता। जिंदगी में सफलता के लिए मेहनत, किस्मत, ईश्वरीय कृपा के साथ-साथ पूर्वजों का आशीर्वाद भी बेहद जरूरी होता है और धर्म एवं ज्योतिष शास्त्र के अनुसार पूर्वजों को सम्मान देने से वे प्रसन्न होते हैं तथा पूरे परिवार पर कृपा करते हैं। इसीलिए हमारे दिवंगत परिजनों की आत्मा की शांति के लिए पितृ पक्ष में तर्पण-श्राद्ध किया जाता है। पितृ पक्ष में पितरों को जल देने की विधि को तर्पण कहा जाता है।

ज्योतिष शास्त्र में पितृ दोष को अशुभ फल देने वाला माना गया है और शास्त्रों के अनुसार पितृ पक्ष में पितरों का तर्पण करने से पितृ दोष से आने वाली परेशानियां दूर होती हैं तथा पितरों का आशीर्वाद मिलता है। देव ऋण, ऋषि ऋण तथा पितृ ऋण का हिन्दू धर्म में विशेष महत्व है और पितृ पक्ष में माता-पिता के प्रति तर्पण करके श्रद्धा व्यक्त की जाती है क्योंकि पितृ ऋण से मुक्त हुए बिना जीवन निरर्थक माना जाता है। सनातन धर्म के अनुसार देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण से मुक्ति पाए बिना व्यक्ति का पूर्ण कल्याण असंभव है। ऋषि ऋण से स्वाध्याय के जरिये, देवऋण से यज्ञ के जरिये और पितृ ऋण से श्राद्ध तथा तर्पण द्वारा मुक्ति प्राप्त हो सकती है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार श्राद्ध पक्ष में पितरों से संबंधित कार्य करने से पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है। महर्षि वेद व्यास के अनुसार जो व्यक्ति श्राद्ध द्वारा अपने पितरों को संतुष्ट करता है, वह पितृ ऋण से मुक्त होकर ब्रह्मलोक को जाता है।

महर्षि जाबालि के अनुसार अपने पितरों का श्राद्ध करने वाले व्यक्ति को पुत्र, आयु, आरोग्य, ऐश्वर्य और इच्छित फल की प्राप्ति होती है। श्राद्ध पक्ष के दौरान दिन में सोना, असत्य भाषण, रति क्रिया, सिर और शरीर पर तेल, साबुन, इत्र आदि लगाना, मदिरापान करना, लड़ाई-झगड़ा, वाद-विवाद, अनैतिक कृत्य तथा किसी भी जीवधारी को कष्ट पहुंचाना निषेध माना गया है। पितृपक्ष को लक्ष्मी और ज्ञान की साधना के लिए उत्तम काल माना गया है। पितरों के निमित्त आयोजित किए जाने वाले पितृ पक्ष को आत्मबोध के लिए भी अति उत्तम तथा जीवन के संघर्ष को उत्कर्ष में परिवर्तित करने का समय माना गया है। हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार श्रद्धा से किया गया श्राद्ध पूर्वजों तक पहुंचे या न पहुंचे लेकिन यह जीवन में उन्नति और प्रगति के द्वार अवश्य खोल सकता है।