Home संपादकीय बॉलीवुड के अनकहे किस्सेः ऐसे रंगीन हुई मुग़ल-ए आज़म

बॉलीवुड के अनकहे किस्सेः ऐसे रंगीन हुई मुग़ल-ए आज़म

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विज्ञान के जरिए आई नई-नई तकनीकों ने हमारे जीवन के हर क्षेत्र को प्रभावित किया है, यहां तक की सिनेमा भी इससे अछूता नहीं रहा। फिल्मों के डिजिटल होने से फिल्मों के रखरखाव पर आनेवाला महंगा खर्चा और उनके खराब हो जाने का खतरा लगभग बिल्कुल खत्म हो गया है। इतना ही नहीं बहुत सारी पुरानी फिल्मों को डिजिटल माध्यम में बदलकर कर उन्हें हमेशा के लिए बचाया जा चुका है। लंबे समय के लिए सुरक्षित हो चुकी इन फिल्मों को अब पूरी दुनिया में विभिन्न प्लेटफार्मों पर देखा जा सकता है। नई पीढ़ी को इन फिल्मों में दिलचस्पी जगाने के लिए ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों को अब रंगीन बनाना भी संभव हो चुका है। इसके चलते कई ऐतिहासिक फिल्में रंगीन होकर दर्शकों को नए रंगीन अनुभव दे चुकी हैं। तो इन रंगीन हो चुकी फिल्मों में आज बात क्लासिक फिल्म मुग़ल-ए-आज़म की। अब यह क्लासिक फिल्म रंगीन होकर हमारे बीच उपलब्ध है।

1960 में रिलीज हुई यह फिल्म अपने समय में तो खूब लोकप्रिय हुई ही थी बल्कि बाद में इसके डायलॉग और गीतों वाले एलपी रिकॉर्ड भी घरों और होटलों में बजते रहते थे। वीडियो और सीडी आ जाने के बाद तो यह फिल्म नई पीढ़ी में भी लगातार लोकप्रिय रही। खैर, फिल्म के रंगीन बनने की कहानी भी बड़ी रोचक है। दरअसल जिस वक्त शापूरजी पलोनजी मिस्त्री जिन्हें सब प्यार से शापूरजी सेठ कहते थे ने मुग़ल-ए-आज़म को फाइनेंस करने का फैसला किया था तब उनके बेटे पालोनजी इस फैसले से बिल्कुल भी खुश नहीं थे। वह के. आसिफ और अपने पिता के साथ रोज़-रोज़ होने वाले लड़ाई-झगड़े से बड़ा परेशान रहते थे। उन्हें यह रोज़-रोज़ की किचकिच पसंद नहीं थी। लेकिन शापूरजी, के.आसिफ और मुग़ल-ए-आज़म के बीच एक ऐसा जज्बाती रिश्ता बन चुका था कि चाह कर भी यह तीनों एक-दूसरे को नहीं छोड़ पा रहे थे। के. आसिफ़ ने शीशमहल के सेट पर फिल्माए गाने, प्यार किया तो डरना क्या… को रंगीन शूट किया था। उसके अच्छे रिजल्ट आने पर उनकी इच्छा थी की पूरी फिल्म को रंगीन बनाया जाए। लेकिन उस वक्त यह फिल्म बनने में बहुत समय खर्च हो चुका था इसलिए कोई भी दोबारा इस नए पचड़े में पड़ने के लिए तैयार नहीं हुआ। लेकिन तब युवा पालोनजी को यह बात याद रही।

एक बार दिलीप कुमार ने पालोनजी से एक मुलाकात के दौरान के.आसिफ़ की उस बाकी रही हसरत का ज़िक्र बढ़ी शिद्दत से किया तो उन्हें भी लगा कि एक बार कोशिश की जानी चाहिए। क्योंकि नई तकनीक आने के बाद अब यह काम महंगा तो था लेकिन असंभव नहीं था। मुश्किल यह थी कि यह तकनीक पश्चिम में तो बेहद सुलभ और सहज ही उपलब्ध थी लेकिन भारत में बहुत महंगी भी थी और कुछ ही लोग यह काम कर रहे थे। विदेश में काम कराने पर उन्हें हर पृष्ठभूमि में भारतीय रंगों को समझाने के लिए काफी विशेषज्ञों की ज़रूरत थी जो अपने आप में काफी खर्चीला काम था। ऐसे में फिल्म को भारतीय रंगों में रंगने की चुनौती को काफी तलाश के बाद 2002 में पुणे की इंडियन अकेडमी ऑफ़ आर्ट्स एंड एनीमेशन ने पूरा करने का बीड़ा उठाया। लेकिन काम शुरू करते ही सबसे बड़ी मुश्किल यह आई की फिल्म का ओरिजिनल निगेटिव तमाम रखरखाव के बावजूद काफी फीका पड़ चुका था। इस नेगेटिव को दोबारा चमकाने के लिए इसकी साफ-सफाई जरूरी थी। यह काम थोड़ा मुश्किल होता है और बहुत सावधानी से करना होता है। खैर यह काम चेन्नई की आइरिस इंटर एक्टिव ने किया। तभी पता चला की फिल्म की साउंड ही खराब हो चली है जो कि फिल्म का निहायत ही लोकप्रिय और जरूरी हिस्सा था। काम लगभग रुक गया। तभी शापूरजी की कंपनी में शामिल एक नौजवान दीपेश सालगिया को कंपनी के गोदाम में फिल्म के ओरिजिनल साउंडट्रेक वाले मैग्नेटिक टेप मिल गए। पुराने दौर के इन स्पूल टेप्स को आधुनिक आवाज में तब्दील करने के लिए हॉलीवुड के प्रसिद्ध चेंस स्टूडियो भेजा गया और एक बड़ी कामयाबी हाथ लग गई। फिर तो फिल्म के संगीत को नए दौर के हिसाब से डॉल्बी सिस्टम में रिकॉर्ड करवाया गया। यह काम भी नौशाद साहब की देखरेख में संभव हुआ जबकि वह काफी बूढ़े हो चुके थे। उनकी उम्र लगभग 84 बरस की थी। नौशाद के साथ प्रख्यात अरेंज़र उत्तम सिंह के साथ नौशाद के बेटे राजू नौशाद ने भी उनकी सहायता की। दो साल तक लगातार काम चलता रहा। आख़िरकार 12 नवंबर 2014 को मुंबई के इरोज़ सिनेमा में यह रंगीन फिल्म रिलीज की गई और इसका भव्य प्रीमियर हुआ। इस बार भी दिल खोल कर पैसा खर्च किया गया।

चलते-चलते

1960 की तरह ही हाथी की पीठ पर मुग़ल-ए-आज़म का रंगीन प्रिंट बैंड बाजे के जुलूस के साथ सिनेमाघर में लाया गया। उसी शान से भव्य प्रीमियर किया गया। इस बार के.आसिफ़ न थे तो अख़्तर आसिफ़ मौजूद थीं। शापूरजी सेठ की जगह उनका पोता मौजूद था। पृथ्वीराज कपूर और राज कपूर न थे तो उनके बेटे रणधीर और ऋषि कपूर मौजूद थे। लेकिन सबसे यादगार मौक़ा था कि फिल्म के शहज़ादे सलीम दिलीप कुमार, जो आसिफ़ के झगड़े के चलते उस प्रीमियर में उपस्थित नहीं थे, आज अपनी पत्नी सायरा बानो के साथ पूरे ठाठ- बाठ से मौजूद थे। इतना ही नहीं बाहर फिर वही नजारा था। सिनेमाघर के बाहर टिकट खरीदने वालों की लंबी लाइन लगी हुई थी। मुग़ल-ए-आज़म का झंडा एक बार फिर बुलंद था।