Home संपादकीय जन्म के रुदन की भी भाषा है हिंदी!

जन्म के रुदन की भी भाषा है हिंदी!

जन्म के रुदन की भी भाषा है हिंदी!

हिंदी दिवस (14 सितंबर) पर विशेष

डॉ. श्रीगोपाल नारसन

हिंदी सबसे अधिक बोली जाने वाली संसार की तीसरी भाषा है। भारत के साथ मॉरीशस, युगांडा, गुयाना, अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, न्यूजीलैंड, पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, सूरीनाम, त्रिनिदाद, साउथ अफ्रीका में हिंदी बोलने व हिंदी में लिखने वालों की संख्या बढ़ी है। अमेरिका, यूरोपीय, एशियाई व खाड़ी के देशों में भी हिन्दी का निरन्तर विकास हुआ है। रूस के कई विश्वविद्यालयों में हिन्दी साहित्य में शोध हुआ है। हिन्दी साहित्य में जितना अनुवाद रूस ने कराया, उतना किसी अन्य भाषा के साहित्य का नहीं कराया गया। यह हिंदी के प्रति बढ़ते रुझान का प्रमाण है।

हम हिंदी को मात्र भारत की भाषा तक सीमित नहीं रख सकते। ‘अ’, ‘आ’,’इ’, ‘ई’,’ओ’,’उ’ आदि हिंदी के अक्षरों में जो स्वर ध्वनि उनके उच्चारण से प्रकट होती है, वही ध्वनि नवजात शिशु के रुदन से भी प्रकट होती है। संसार के सभी नवजातों के रुदन की ध्वनि एक ही प्रकार की है। इसलिए हम कह सकते हैं कि हिंदी हर मनुष्य के जन्म की भाषा है। अपने देश की विभिन्न भाषाओं में सबसे प्रभावी किसी एक भाषा को चुन कर उसे राष्ट्रीय अस्मिता का आवश्यक उपादान समझते हुए जब सम्मान व आत्मसात किया जाता है तो वही भाषा राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्य हो जाती है।

चूंकि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हिंदी स्वाधीनता सेनानियों के सम्पर्क की भाषा रही, इसीलिए हिंदी राष्ट्रभाषा कहलाई। वास्तव में ‘राष्ट्रभाषा’ शब्द कोई संवैधानिक शब्द नहीं है, बल्कि यह एक व्यावहारिक व जनमान्यता प्राप्त शब्द है। हिंदी जिसे हम राष्ट्रभाषा मानते हैं, सामाजिक, सांस्कृतिक स्तर पर देश को जोड़ने का काम करती है। इसकी प्राथमिकता देश में विभिन्न समुदायों के बीच भावनात्मक एकता स्थापित करना भी है। राष्ट्रभाषा हमेशा स्वभाषा ही हो सकती है क्योंकि उसी के साथ जनता का भावनात्मक लगाव होता है। राष्ट्रभाषा का स्वरूप लचीला होता है और इसे जनता के अनुरूप किसी रूप में ढाला जा सकता है।

भारत में हिंदी दीर्घकाल से जन-जन के पारस्परिक सम्पर्क की भाषा रही है। यह केवल उत्तर भारत ही नहीं, दक्षिण भारत के आचार्यों वल्लभाचार्य, रामानुज, रामानंद, शंकराचार्य आदि ने भी इसी भाषा के माध्यम से अपने मतों का प्रचार किया था। अहिंदी भाषी राज्यों के भक्त-संत कवियों जैसे, असम के शंकरदेव, महाराष्ट्र के ज्ञानेश्वर व नामदेव, गुजरात के नरसी मेहता, बंगाल के चैतन्य आदि ने इसी भाषा को अपने धर्म और साहित्य का माध्यम बनाया था।

जनता और सरकार के बीच संवाद स्थापना के क्रम में जब फ़ारसी या अंग्रेज़ी के माध्यम से परेशानी हुई तो अंग्रेजों ने फ़ोर्ट विलियम कॉलेज में हिंदी विभाग खोल कर अधिकारियों को हिंदी सिखाने की व्यवस्था की। यहाँ से हिंदी पढ़े हुए अधिकारियों ने भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में उसका प्रत्यक्ष लाभ देकर मुक्त कंठ से हिंदी को सराहा। सी. टी. मेटकाफ़ ने 1806 ई. में अपने गुरु जॉन गिलक्राइस्ट को लिखा-‘भारत के जिस भाग में भी मुझे काम करना पड़ा, कलकत्ता से लेकर लाहौर तक, कुमाऊँ के पहाड़ों से लेकर नर्मदा नदी तक मैंने उस भाषा का आम व्यवहार देखा है, जिसकी शिक्षा आपने मुझे दी है। मैं कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक या जावा से सिंधु तक इस विश्वास से यात्रा करने की हिम्मत कर सकता हूँ कि मुझे हर जगह ऐसे लोग मिल जाएँगे जो हिन्दुस्तानी बोल लेते होंगे।’

टॉमस रोबक ने 1807 ई. में लिखा-‘जैसे इंग्लैण्ड जाने वाले को लैटिन सेक्सन या फ़्रैंच के बदले अंग्रेज़ी सीखनी चाहिए, वैसे ही भारत आने वाले को अरबी-फ़ारसी या संस्कृत के बदले हिन्दुस्तानी यानि हिंदी सीखनी चाहिए।’ विलियम केरी ने 1816 ई. में लिखा- ‘हिंदी किसी एक प्रदेश की भाषा नहीं बल्कि देश में सर्वत्र बोली जाने वाली भाषा है।’ एच. टी. कोलब्रुक ने लिखा-‘जिस भाषा का व्यवहार भारत के प्रत्येक प्रान्त के लोग करते हैं, जो पढ़े-लिखे तथा अनपढ़ दोनों की साधारण बोलचाल की भाषा है, जिसको प्रत्येक गाँव में थोड़े बहुत लोग अवश्य ही समझ लेते हैं, उसी का यथार्थ नाम हिंदी है।’ जार्ज ग्रियर्सन ने हिंदी को ‘आम बोलचाल की महाभाषा’ कहा है।

हिंदी की व्यावहारिक उपयोगिता, देशव्यापी प्रसार एवं प्रयोगगत लचीलेपन के कारण अंग्रेज़ों ने हिंदी को अपनाया। उस समय हिंदी और उर्दू को एक ही भाषा माना जाता था। अंग्रेज़ों ने हिंदी को प्रयोग में लाकर हिंदी की महती संभावनाओं की ओर राष्ट्रीय नेताओं एवं साहित्यकारों का ध्यान खींचा था। ब्रह्म समाज के संस्थापक राजा राममोहन राय ने सन 1828 में कहा, इस समग्र देश की एकता के लिए हिंदी अनिवार्य है। ब्रह्मसमाजी केशव चंद्र सेन ने 1875 ई. में एक लेख लिखा, भारतीय एकता कैसे हो, ‘जिसमें उन्होंने लिखा- उपाय है सारे भारत में एक ही भाषा का व्यवहार। अभी जितनी भाषाएँ भारत में प्रचलित हैं, उनमें हिंदी भाषा लगभग सभी जगह प्रचलित है। यह हिंदी अगर भारतवर्ष की एकमात्र भाषा बन जाए तो यह काम सहज और शीघ्र ही सम्पन्न हो सकता है। एक अन्य ब्रह्मसमाजी नवीन चंद्र राय ने पंजाब में हिंदी के विकास के लिए स्तुत्य योगदान दिया।

आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती गुजराती भाषी थे एवं गुजराती व संस्कृत के अच्छे जानकार थे। हिंदी का उन्हें सिर्फ़ कामचलाऊ ज्ञान था, पर अपनी बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने के लिए तथा देश की एकता को मज़बूत करने के लिए उन्होंने अपना सारा धार्मिक साहित्य हिंदी में ही लिखा। उनका कहना था कि हिंदी के द्वारा सारे भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है। वे इस ‘आर्यभाषा’ को सर्वात्मना देशोन्नति का मुख्य आधार मानते थे। उन्होंने हिंदी के प्रयोग को राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान किया। वे कहते थे, ‘मेरी आँखें उस दिन को देखना चाहती हैं, जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक भाषा समझने और बोलने लग जाएँगे।’

महर्षि अरविन्द घोष की सलाह थी कि ‘लोग अपनी-अपनी मातृभाषा की रक्षा करते हुए सामान्य भाषा के रूप में हिंदी को ग्रहण करें।’

एनी बेसेंट ने कहा था, “भारतवर्ष के भिन्न-भिन्न भागों में जो अनेक देशी भाषाएँ बोली जाती हैं, उनमें एक भाषा ऐसी है जिसमें शेष सब भाषाओं की अपेक्षा एक भारी विशेषता है, वह यह कि उसका प्रचार सबसे अधिक है। वह भाषा हिंदी है। हिंदी जानने वाला आदमी सम्पूर्ण भारतवर्ष में यात्रा कर सकता है और उसे हर जगह हिंदी बोलने वाले मिल सकते हैं। भारत के सभी स्कूलों में हिंदी की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए।”

सन 1885 ई. में स्थापित कांग्रेस का राष्ट्रीय आंदोलन जैसे-जैसे ज़ोर पकड़ता गया, वैसे-वैसे राष्ट्रीयता, राष्ट्रीय झण्डा एवं राष्ट्रभाषा के प्रति आग्रह बढ़ता ही गया। 1917 में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने कहा, “मैं उन लोगों में से हूँ, जो चाहते हैं और जिनका विचार है कि हिंदी ही भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है।” तिलक ने भारतवासियों से आग्रह किया कि वे हिंदी सीखें। महात्मा गाँधी राष्ट्र के लिए राष्ट्रभाषा को नितांत आवश्यक मानते थे। उनका कहना था, “राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है।” गाँधीजी हिंदी के प्रश्न को स्वराज का प्रश्न मानते थे- “हिंदी का प्रश्न स्वराज्य का प्रश्न है।” सन 1927 में सी. राजगोपालाचारी ने दक्षिण वालों को हिंदी सीखने की सलाह दी और कहा, “हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा तो है ही, यही जनतंत्रात्मक भारत में राजभाषा भी होगी।” 1929 में सुभाषचंद्र बोस ने कहा, “प्रान्तीय ईर्ष्या-द्वेष को दूर करने में जितनी सहायता इस हिंदी प्रचार से मिलेगी, उतनी दूसरी किसी चीज़ से नहीं मिल सकती। अपनी प्रान्तीय भाषाओं की भरपूर उन्नति कीजिए, उसमें कोई बाधा नहीं डालना चाहता और न हम किसी की बाधा को सहन ही कर सकते हैं। पर सारे प्रान्तों की सार्वजनिक भाषा का पद हिंदी को ही मिला है।”

सन 1928 ई. में प्रस्तुत नेहरू रिपोर्ट में भाषा सम्बन्धी सिफ़ारिश में कहा गया था, “देवनागरी अथवा फ़ारसी में लिखी जाने वाली हिन्दुस्तानी भारत की राष्ट्रभाषा होगी, परन्तु कुछ समय के लिए अंग्रेज़ी का उपयोग ज़ारी रहेगा।” सिवाय ‘देवनागरी या फ़ारसी’ की जगह ‘देवनागरी’ तथा ‘हिन्दुस्तानी’ की जगह ‘हिंदी’ रख देने के अंततः स्वतंत्र भारत के संविधान में इसी मत को अपना लिया गया।

इंटरनेट पर हिंदी भाषा सामग्री लिखने व पढ़ने वालों की संख्या में हर साल 94 प्रतिशत से अधिक बढ़ोतरी हो रही है। अंग्रेजी भाषा में हर साल 17 प्रतिशत की गिरावट भी हिंदी के बढ़ने का एक बड़ा कारण है। इस साल के अंत तक दुनिया में 20 करोड़ से अधिक लोग हिन्दी को अपनाने लगेंगे। संसार के 175 से अधिक विश्वविद्यालयों में हिन्दी एक विषय के रूप में पढ़ाई जाती है। हिन्दी भाषा का अध्ययन, अध्यापन और अनुसंधान निरन्तर बढ़ रहा है। फिजी में हिन्दी को राजभाषा का अधिकारिक दर्जा मिला प्राप्त है। जो अवधी, भोजपुरी और क्षेत्रीय बोलियों से मिलकर बनी है।अमेरिका के तीस से अधिक विश्वविद्यालयो में हिंदी पर काम हो रहा है।जापान में हिंदी के प्रति रुचि और इसे कैरियर व व्यवसाय से जोड़कर हिंदी के पाठ्यक्रम शुरू किए गए है।जो हिंदी के लिए एक शुभ संकेत है।

(लेखक, विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ के उपकुलपति व वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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