परेशान किसान, असुरक्षित फसलें: जीएम मक्का का भयावह सच
आज भारत अपनी कृषि नीति के एक ऐसे महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है, जहां हमारे नीति-निर्माताओं पर जीएम मक्का के पैरोकारों द्वारा अलग अलग प्लेटफार्म के जरिये जीएम (जेनेटिकली मॉडिफाइड) मक्का को अपनाने का निरंतर दबाव डाला जा रहा है। जीएम मक्का के पैरोकारों के अनुसार, जेनेटिकली मॉडिफाइड फसलें अपने देश की खाद्य सुरक्षा और कृषि चुनौतियों को बेहतर तरीके से हल कर सकती हैं। सतही तौर पर यह आकर्षक लग सकता है लेकिन गहराई से आकलन किया जाए तो ये तस्वीर उतनी लुभावनी नहीं है जैसी दिख रही है। पूरे विश्व में वैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों और स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने जीएम मक्के के दीर्घकालीन दुष्प्रभावों पर गंभीर चिंता व्यक्त की है।
कल, मुझे चौंकाने वाली खबर पढ़ने को मिली, जिसमें बताया गया था कि “जीएम फ्री इंडिया “ नामक संस्था के पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने तमिलनाडु में जीएम मक्का की अवैध खेती और देशभर में “प्रोसेस्ड और अनप्रोसेस्ड” मक्का उत्पादों में इसकी मौजूदगी को लेकर चिंता जताई है। उनका यह दावा “नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फूड्स टेक्नोलॉजी, एंटरप्रेन्योरशिप एंड मैनेजमेंट” (NIFTEM) द्वारा की गई रिसर्च पर आधारित है। “साइंस डायरेक्ट” नामक प्रतिष्ठित पत्रिका में प्रकाशित इस शोध में ATR-FTIR और PCR-आधारित विधियों का उपयोग कर मक्के में जीएम मक्का के अंश का पता लगाया गया। शोध में यह पाया गया कि उनके द्वारा परीक्षण किए गए 15% से अधिक नमूनों में PCR (Polymerase Chain Reaction) तकनीकों के माध्यम से जीएम लक्षण पाए गए। और तो और, उनमें से लगभग 20% नमूनों में जीएम मक्का के समान कार्यात्मक विशेषताएं मौजूद थीं।
भारत में जीएम फसलों पर सख्त नियामक प्रतिबंधों के बावजूद, ऐसी खबरें ये दर्शाती हैं कि भारत में भी चोरी-छिपे जीएम फसलों का धड़ल्ले से प्रवेश हो रहा है। अब इसका कारण चाहे अवैध रूप से जीएम मक्के का आयात हो या प्रयोगात्मक परीक्षणों में लीक हो, दोनों सूरतों में जीएम मक्के का भारत के बाजार में ऐसे प्रवेश एक जबरदस्त खतरे की घंटी है। कई पर्यावरण कार्यकर्ताओं और “जीएम फ्री इंडिया” जैसे संगठनों ने इस विषय पर गंभीर चिंता व्यक्त की है तथा इसे हमारे देश के लिए एक गंभीर नियामक चूक बताया है। हमें ये समझना पड़ेगा कि यह सिर्फ नियम तोड़ने का ही मामला नहीं है; बल्कि यह हमारे नागरिकों के स्वास्थ्य, किसानों के भविष्य, और हमारी पारिस्थितिकी और भूमि की उर्वरता के लिए एक खिलवाड़ जैसा है जिसका खामियाजा हमारी कई पीढ़ियों को भुगतना पड़ सकता है।
इसके अलावा, जीएम मक्का की शुरुआत भारत की विविध स्वदेशी मक्का किस्मों के लिए खतरे का कारण बनती है, जिससे परागण और आनुवंशिक संदूषण का जोखिम उत्पन्न होता है। इससे आनुवंशिक विविधता में कमी आएगी, जिससे फसलें जलवायु परिवर्तन और बीमारियों के प्रति कम लचीली होंगी। इस घटनाक्रम में सबके लिए एक सीख है और अब ये जरूरत है कि भारत की कृषि विरासत और खाद्य प्रणालियों की रक्षा के लिए जीएम मक्का के खिलाफ विज्ञान-आधारित नीतियों को और प्रभावी बनाये जिससे भविष्य में इस तरह की स्थिति ना पैदा हो।
भारत कृषि प्रधान देश है जहाँ कृषि अधिकांशतः छोटे और सीमांत किसानों पर निर्भर है। हमारे देश में मक्के की ऐसी कई देशज किस्में उपजाई जाती हैं, जिसके लिए परंपरागत तरीके का उपयोग करते हैं और उन्हें बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर निर्भर नहीं रहना होता। कई पर्यावरणविद् ऐसी आशंका जता रहे हैं कि जीएम मक्के के आने यह संतुलन बिगड़ जाएगा, क्योंकि जीएम फसलें विदेशी कंपनियों द्वारा पेटेंट की गए बीजों पर निर्भर हैं। अगर किसान जीएम मक्का उपजाने लगे तो उन्हें को हर साल इन्हीं गिनी चुनी कंपनियों से महंगे बीज खरीदने के मजबूर होना पड़ेगा जिससे उनकी कृषि लागत बढ़ने के साथ-साथ उनकी इन कंपनियों पर निर्भरता भी बढ़ेगी। जो किसान मक्का की उपज को अपनी आर्थिक उन्नति का जरिया समझ रहें हैं वो बेचारे ऐसी स्थिति में कहाँ जायेंगे, ये सोचनीय विषय है।
जीएम मक्का के गुणों की बात की जाए तो इसे जेनेटिक रूप से ऐसे संशोधित किया जाता है जो इन्हें कीटनाशकों और हर्बिसाइड्स, जैसे ग्लाइफोसेट, के प्रति सहिष्णु बनाता है। हालांकि इन तकनीकों से कीट और खरपतवार नियंत्रण का दावा तो किया जाता है, लेकिन इससे स्वास्थ्य सम्बन्धी रोगों और पर्यावरणीय जोखिम की संभावना बढ़ जाती है। कई अध्ययनों ने जीएम फसलों को एलर्जी, पर्यावरणीय असंतुलन और कैंसर जैसी बीमारियों से जोड़ा है। ग्लाइफोसेट का उपयोग माइक्रोबियल प्रतिरोध और विषाक्तता को बढ़ा सकता है। अतः हानिकारक कीटों के साथ साथ इससे मधुमक्खियों जैसे लाभकारी कीट भी प्रभावित होते हैं, जिससे पारिस्थितिकी और जैव विविधता में असंतुलन पैदा हो सकता है। भारत में बीटी कपास के उत्पादन के कड़वे अनुभव से ये साबित हो गया है कि ये फसलें अक्सर अपने अनुमान के मुताबिक पैदावार नहीं बढ़ा पातीं और किसानों को आर्थिक परेशानियों में डाल देती हैं।
आज के समय में वैश्विक स्तर पर, खासकर यूरोप और एशिया के कुछ हिस्सों में उपभोक्ताओं द्वारा जीएम-मुक्त खाद्य पदार्थों की मांग बढ़ रही है। कई देश पुख्ता सबूतों के साथ ऐसा दावा करते हैं कि गैर-जीएम कृषि को प्राथमिकता देना न केवल व्यावहारिक कदम है, बल्कि यह कदम देश की खाद्य सुरक्षा, जैव विविधता और आर्थिक उत्थान के लिए भी फायदेमंद है। उदाहरण के तौर पर यूरोपीय संघ (EU) में, कुल मक्का उत्पादन का 99% से अधिक हिस्सा जीएम-मुक्त मक्के का है। ये जीएम फसलों को अपने देश में सख्त नियामक प्रणाली से नियंत्रित करते हैं। एक डाटा के अनुसार सन 2023 में यूरोपीय संघ में लगभग 61.4 मिलियन टन जीएम-रहित मक्का उत्पादन हुआ। इसी तरह, ब्राजील ने जीएम-रहित मक्का और सोयाबीन के निर्यात-बाजार में अपनी स्थिति मजबूत की है। अगर इन देशों ने बिना जीएम बीजों को अपनाये हुए मक्के की उपज बढ़ा सकते हैं तो भारत क्यों नहीं। जीएम मक्का को अपनाना इन उपभोक्ताओं को निराश और मक्के के उपयोग से दूर कर सकता है, जो भारत की “सतत कृषि” की छवि को नुकसान पहुंचा सकता है।
कई पर्यावरणविदों और कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि भारत को खाद्य सुरक्षा के लिए जीएम मक्का की आवश्यकता कतई नहीं है। आधुनिक प्रजनन तकनीकें मक्के के सुरक्षित और प्रभावी विकल्प प्रदान करती हैं। बिना किसी खतरे के उच्च उत्पादन, कीट प्रतिरोधी और सूखा-सहिष्णु मक्के की फसलें विकसित करने के लिए लम्बे समय से इन विधियों का उपयोग किया जाता रहा है। सार्वजनिक क्षेत्र के अनुसंधान संस्थानों को ऐसी टिकाऊ फसलें विकसित करने पर ध्यान देना चाहिए, जो भारत की कृषि स्थितियों के लिए उपयुक्त हों। इसके साथ ही, जीएम फसलों की अवैध खेती और आयात को रोकने के लिए मजबूत निगरानी तंत्र की आवश्यकता है। नियमित परीक्षण, सख्त जैव-सुरक्षा प्रवर्तन और नियम तोड़ने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए, जिससे इस तरह की स्थिति पुनः पैदा ना हो। तमिलनाडु में जीएम मक्का की अवैध खेती, हमारी सरकार, हमारे किसान और उपभोक्ताओं के लिए गंभीर चेतावनी है। अतः भारत को अपनी कृषि नीति में सतत और पर्यावरण-अनुकूल विकल्प अपनाने चाहिए।