Home संपादकीय श्यामजी कृष्ण वर्मा ने ही विदेशों में जगाई क्रांति की अलख

श्यामजी कृष्ण वर्मा ने ही विदेशों में जगाई क्रांति की अलख

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2 अक्टूबर को गांधी जयंती तो सब मनाते हैं लेकिन 4 अक्टूबर की तारीख किसी को याद नहीं रहती। महात्मा गांधी ने जहां जन्म लिया उसी गुजरात के कच्छ क्षेत्र के मांडवी नगर के पास वलायल गांव में एक कुशाग्र बुद्धि बालक का जन्म हुआ, जो कम उम्र में ही संस्कृत में धारा प्रवाह भाषण देता था। इससे प्रभावित होकर एक अंग्रेज संस्कृत अध्यापक उसे इंग्लैंड बुला लेता है। यही बालक दुनिया के प्रतिष्ठित ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से स्नातक और बैरिस्टरी पास करने वाला प्रथम भारतीय बनता है। अपने एक लेख ‘भारत में लेखन का उद्गम’ के आधार पर ही रॉयल एशियाटिक सोसाइटी का सदस्य भी चुना जाता है। यह तो उस बालक की प्रतिभा का एक रूप है। उनका दूसरा रूप भारत की स्वाधीनता को लेकर विदेश खासकर उसी इंग्लैंड में क्रांति की ज्वाला धधकाने से जुड़ा है, जिसने उनके अपने देश को दशकों से गुलाम बना रखा था।

इस क्रांतिदूत का नाम है श्यामजी कृष्ण वर्मा। अंग्रेजों के अत्याचार से दुखी होकर ही भारत छोड़ कर इंग्लैंड जाने वाले श्यामजी कृष्ण वर्मा ने भारतीय छात्रों की आवासीय व्यवस्था के लिए उस इंडिया हाउस की स्थापना की जो आज ‘क्रांति तीर्थ’ के नाम से जाना जाता है। इसी इंडिया हाउस में भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम से जुड़ी तारीख 10 मई को हर साल ‘गदर दिवस’ मनाया जाता था। यहां बम बनाने और पिस्तौल चलाने पर व्याख्यान होते थे। वीर सावरकर ने यही 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास लिखा। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के वह अकेले क्रांतिकारी हैं, जिनकी इंग्लैंड के इंडिया हाउस के बाहर अपनी धर्मपत्नी के साथ आदमकद मूर्ति स्थापित है। पिछले दिनों भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी क्रांति धर्मी दंपति की प्रतिमाओं के समक्ष माथा टेकने पहुंचे थे।

4 अक्टूबर 1857 को श्याम जी कृष्ण वर्मा एक साधारण परिवार में जन्मे थे लेकिन प्रतिभा का ही प्रभाव था कि उनका विवाह मुंबई के एक करोड़पति सेठ की कन्या भानुमति से हुआ। कई भाषाओं के प्रकांड विद्वान श्यामजी कृष्ण वर्मा 1884 में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से बैरिस्टरी पास करने के बाद भारत लौट आए। यहां कई रियासतों में उन्हें अपने-अपने यहां दीवान या अन्य महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त करने की होड़ मची रही लेकिन प्रतिभाशाली वर्मा का रियासतों में काम करने में मन नहीं लगा और वह मुंबई में बैरिस्टरी करने लगे।

पुणे में अंग्रेज पुलिस कमिश्नर रेंड की हत्या करने के अपराध में चाफेकर बंधुओं को फांसी की सजा दिए जाने से क्षुब्ध श्यामजी कृष्ण वर्मा ब्रिटेन में भारत की स्वाधीनता संग्राम को लेकर सक्रिय हुए। 12 मई 1897 को बालकृष्ण चाफेकर की फांसी के अगले महीने पुणे में एक बड़ा बम विस्फोट हुआ। इस विस्फोट के पीछे श्यामजी कृष्ण वर्मा का ही हाथ था, जो दुश्मन के घर में बैठकर क्रांति की योजनाओं का संचालन कर रहे थे। भारतीयों में क्रांति की अलग जागने के लिए ही श्यामजी कृष्ण वर्मा ने 1904 में अपनी तरफ से दो ₹2000-2000 की 6 फेलोशिप भारतीय छात्रों को देने की घोषणा की। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के नायक विनायक दामोदर सावरकर भी उन्हीं की छात्रवृत्ति के आधार पर इंग्लैंड शिक्षा प्राप्त करने पहुंचे थे। लाला हरदयाल और महान क्रांतिकारी मदन सिंह ढींगरा भी उन्हीं की प्रेरणा से भारतीय स्वाधीनता क्रांति के दूत बने।

श्यामजी कृष्ण वर्मा ने ही 1905 में इंडियन सोशलिस्ट नामक पत्रिका प्रारंभ की। इस पत्रिका के माध्यम से भी वह विदेश में रह रहे भारतीयों में भारत की आजादी की अलग जागते थे। 18 फरवरी 1905 को उन्होंने 20 भारतीयों के साथ मिलकर इंडियन होमरूल सोसाइटी की स्थापना की। यही वह समिति थी, जिसने कांग्रेस से पहले पूर्ण स्वाधीनता-‘ भारतीयों द्वारा भारतीयों के लिए भारतीय सरकार की स्थापना-‘ की बात उठाई थी। ब्रिटिश हुकूमत के सतर्क होने और अपनी गिरफ्तारी की आशंका से मादाम भीकाजी कामा और सरदार सिंह राणा के साथ श्यामजी कृष्ण वर्मा ने अपना नया केंद्र पेरिस को बनाया। पेरिस में भी दबाव बनने पर श्यामजी कृष्ण वर्मा जिनेवा चले गए। अपना इंडियन सोशलिस्ट पत्र वह जिनेवा से लगातार निकाल कर भारतीयों में अंतिम सांस तक भारत की आजादी की अलख जागते रहे। 30 मार्च 1930 को उन्होंने जिनेवा में ही अंतिम सांस ली।