Home संपादकीय बॉलीवुड के अनकहे किस्सेः किस्सा बलराज साहनी के शंभू महतो बनने का

बॉलीवुड के अनकहे किस्सेः किस्सा बलराज साहनी के शंभू महतो बनने का

18

कुछ किरदार अभिनेताओं के व्यक्तित्व से ऐसे जुड़ जाते हैं कि उनकी पहचान ही बन जाते हैं । जैसे दिलीप कुमार और देवदास, अमजद खान और गब्बर, जया भादुड़ी और गुड्डी। ऐसा ही कुछ हुआ बलराज साहनी के किरदार शंभू महतो के साथ…

दो बीघा जमीन (1953) के इस केंद्रीय पात्र को बलराज साहनी ने ऐसी शिद्दत से निभाया कि हर दर्शक एक किसान की अपनी दो बीघा जमीन बचाने के लिए कलकत्ता में हाथ रिक्शा खींचने और दूसरे संघर्षों में इस तरह से शामिल होता चला गया, मानो यह संघर्ष केवल उसका न होकर उन सबका भी है। उसकी एक-एक मुश्किल और परेशानी पर परदे के बाहर बैठे दर्शक उतना ही द्रवित हुए जितना वह परदे पर …

यह अभिनेता और दर्शक का एक ऐसा रिश्ता होता है जिसे कायम करने के लिए अभिनेता की सच्चाई और मेहनत तथा उसे गढ़ने वाले निर्देशक को समर्थ और व्यापक सामाजिक नजर की दरकार होती है।

बलराज साहनी का शंभू मेहता होना इस दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है कि वह एक सफल और बड़े व्यापारी घराने के सबसे बड़े पुत्र होने के साथ ही अंग्रेजी में एम ए थे, वह भी लाहौर के गवर्मेंट कॉलेज जैसे प्रतिष्ठित कॉलेज से। इतना ही नहीं वह रबींद्रनाथ ठाकुर के शांति निकेतन विश्वविद्यालय में हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के साथ अध्यापक रहे थे और महात्मा गांधी के साथ रह कर काम करने के बाद बीबीसी लंदन में उद्घोषक रह कर भारत वापस लौटे थे। ऐसे यादगार और विश्वसनीय किरदार यूं ही हवा में पैदा नहीं होते। बलराज साहनी द्वारा लिखी मेरी फिल्मी आत्मकथा में इस किरदार के इतने यादगार या महत्वपूर्ण होने के ज्यादातर संदर्भ मिल जाते हैं।

शंभू महतो के रोल के लिए सबसे पहले अशोक कुमार ने स्वयं संपर्क किया था बिमल रॉय से लेकिन उन्हें मना कर दिया गया। बाद में जयराज और भारत भूषण ने भी इस भूमिका को करना चाहा। इस भूमिका के लिए अपने चयन के बारे में स्वयं बलराज साहनी ने अपनी आत्मकथा में कुछ इस तरह लिखा है,”सुबह का समय था। मै समुद्र-तट पर बच्चों के साथ रेत के घरौंदे बना रहा था। तभी मैंने देखा, एक गोल-मटोल बंगाली बाबू अपनी धोती का सिरा पकड़े मेरी ओर आ रहा है। मैं उसे जानता नहीं था।(उस व्यक्ति का नाम असित सेन था, जो उन दिनों बिमल रॉय के सहायक निर्देशक थे और बाद में हिन्दुस्तानी फिल्मों के प्रसिद्ध हास्य-अभिनेता बने)

असित सेन ने मेरे बिलकुल निकट पहुंचकर उदास और नाकसुरी आवाज में कहा, ‘बिमल राय दादा आपको याद कर रहे है। उन्हें फ़िल्म के बारे में बात करनी है।”

मैं जल्दी से तैयार होकर मोहन स्टूडियो पहुंचा। अपने चेहरे पर मैंने हलका-सा पाउडर लगा लिया था और इंगलैंड का सिला सूट प्रेस करवा कर पहन लिया था, जो उस मौसम को देखते हुए काफ़ी भारी था। जब मैं बिमल रॉय के कमरे में दाखिल हुआ, तो वे मेज पर बैठे कुछ लिख रहे

थे। उन्होंने आंखें उठा कर मेरी ओर देखा, तो देखते ही रह गए। मुझे लगा, जैसे मैंने कोई कसूर कर दिया हो। कुछ देर के बाद उन्होंने मुड़कर, अपने पीछे कुर्सियों पर बैठे, कुछ लोगों से बंगला में कहा, “एईजे की चमत्कार मानुष ! आमार शोंगे ढाढा कोरे छो की?” (क्या अजीबोगरीब आदमी पकड़ लाए हो! मेरे साथ मजाक कर रहे हो क्या ?) उन्हें शायद पता नहीं था कि मैं बंगला जानता हूं। उन्होंने मुझे बैठने को भी नहीं कहा। आखिर वे बोले, ‘मिस्टर साहनी, मेरे आदमियों से ग़लती हुई है। जिस किस्म का पात्र मैं फ़िल्म में पेश करना चाहता हूं, आप उसके बिलकुल उपयुक्त नहीं है।”

इतना रूखा व्यवहार ! गैरत की मांग थी कि मैं उसी समय वहां से चला जाता। लेकिन मैं वहां जैसे गड़ा रहा। आसमान को पहुंची हुई आशाएं इनती जल्दी मिट्टी में मिल जाएंगी, इसके लिए मैं तैयार नहीं था।

“क्या पात्र है?” मैंने गला साफ करते हुए पूछा।

“एक अनपढ़, गरीब देहाती का !” बिमल राय के लहजे में व्यंग्य था।

मैंने फिर चाहा कि उलटे पांव वापस चला जाऊं, लेकिन पैरों ने हिलने से जवाब दे दिया और कोई अदृश्य शक्ति उन्हें रोके हुए कह रही थी कि यह मौका दुबारा नहीं आएगा। और उसी अदृश्य शक्ति ने मेरे मुंह से कहलवाया, “ऐसा रोल मैं पहले कर चुका हूं।”

“कहां?”

“पीपल्स थियेटर की फिल्म, ‘धरती के लाल’ में।”

बिमल रॉय के चेहरे का भाव बदला। उनके पीछे बैठे लोगों ने भी जैसे सुख का सांस ली। तब उनमें बैठे सलिल चौधरी को मैंने पहचाना, जो खुद ‘इप्टा’ (इंडियन पीपल्स थियेटर) के सदस्य थे और जिनसे मैं एक-दो बार मिल चुका था। क्या पता, उन्होंने बिमल रॉय को मेरा नाम सुझाया हो।

“धरती के लाल में किस पात्र का रोल किया था?” बिमल रॉय ने पूछा।

“प्रधान के बेटे, निरंजन का। शंभू मित्र उस फ़िल्म के सहयोगी निर्देशक थे। उन्होंने मेरी बहुत मदद की थी।”

“बोशी।” बिमल रॉय ने कुर्सी की ओर संकेत करते हुए कहा।

‘धरती के लाल’ से भी ज्यादा काम किया शंभू मित्र के नाम के जादू ने। जैसे मैंने बिमल रॉय की निर्देशकीय योग्यता को चुनौती दी हो। मुझे रोल मिल गया। स्टूडियो के बगीचे में सीमेंट की एक बेंच पर बैठकर ऋषिकेश मुखर्जी ने मुझे फिल्म की कहानी सुनाई। सुनाते समय उन्होंने मुझे भी रुलाया और खुद भी रोए।

चलते-चलते

अपने को शंभू महतो में बदलने के लिए बलराज साहनी उस समय बंबई के बाहर जोगेश्वरी के इलाके में जाने लगे जहां उत्तर प्रदेश और बिहार से आए भैया लोग जो गाय-भैंस पालते थे, बड़ी संख्या में रहते थे। बलराज वहां जाकर उनके साथ उठते-बैठते, उनकी बातें सुनते, उन्हें काम करते हुए देखते। वे कैसे चलते हैं, क्या खाते हैं, क्या पहनते हैं वे सब बड़े गौर से देखकर अपने मन में बिठाने लगे। इन सब भैया लोगों के सिर पर गमछा बांधने का अनिवार्य-सा रिवाज होता है। वह भी गमछा ले आए और सिर पर अलग-अलग तरीके से लपेटने का अभ्यास करने लगे।

आखिर शूटिंग का दिन आ पहुंचा। उन्होंने बिमल दा से स्वयं मेकअप करने और कपड़े पहनने की इजाजत मांगी। वह तैयार हो गए। आखिर में जब वह शंभू महतो बनाकर किसानों के अंदाज में चलते हुए बिमल दा के सामने आए तो उनसे पहले दिन मिलने वाले सूटेड-बूटेड आदमी की कोई बात उनमें नहीं बची थी।