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हिंदीः सुदृढ़ लोकतंत्र की आधारशिला

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हिंदी दिवस (14 सितम्बर) पर विशेष

गिरीश्वर मिश्र

यद्यपि लोकतंत्र की अवधारणा के मूल, भारत में प्राचीनकाल में मौजूद थे परंतु विदेशी आक्रांताओं और अंग्रेजों के उपनिवेश के चलते भारत एक लम्बी गुलामी के दौर से गुजरा और प्रजातांत्रिक अभ्यास दुर्बल हो गए। स्वतंत्रता के लम्बे संघर्ष के बाद आधुनिक भारत में लोकतंत्र का एक नया अध्याय अंग्रेजों की परतंत्रता समाप्त होने के साथ खुला। देश 1947 में अंग्रेजों से राजनैतिक रूप में अपरतंत्र तो ज़रूर हो गया परंतु पूरी तरह स्वतंत्र नहीं हुआ। बहुत सारे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष बंधनों के बीच यह लोकतंत्र की यात्रा शुरू हुई। इस यात्रा में स्वतंत्र देश के लिए जो (शासन) तंत्र अपनाया गया वह अपने ढाँचे में अंग्रेजों के ही तर्ज़ पर पहले जैसा ही बना रहा। फलतः बहुत हद तक इसकी रोब-दाब वाली गोरे अंग्रेजों की साहबी व्यवस्था और तहज़ीब लगभग पहले जैसी ही चलती रहीं सिर्फ़ चेहरे बदल गए। शासन करने वाले अंग्रेजों को भगाना किंतु अंग्रेजियत को अपने लिए बचा कर सुरक्षित रखना और उसी हिसाब से सारी व्यवस्था चलाते रहना हमारी अंतहीन मानसिक दुविधा बन गई। जनता जनार्दन पर अपनी प्रभुता और वर्चस्व बनाए रखने की शैली पूर्ववत् बरकरार रही मानो सत्ता का वैसा स्वभाव अपरिहार्य होता हो। जनता की और जनता से बनी सरकार जिसे जनता के लिए ही होना था वह कुछ इस ढंग से चली कि उसके इर्द-गिर्द क़िस्म-क़िस्म के अभेद्य क़िले खड़े होते गए, खाइयाँ खुदती गईं ताकि सरकारी आभिजात्य सुरक्षित रहे। लोकतंत्र का वादा करने के बाद भी जनता से दूर रहना सरकारी मुलाजिमों और नेताओं को कुछ इस कदर भा गया कि उन्होंने इस बात की पुख़्ता व्यवस्था बनाई वे प्रजा से अपनी दूरी बनाए रखें। इस हिसाब से अंग्रेज़ी भाषा का आकर्षक प्रभामंडल वाला आवरण बड़ा मुफ़ीद साबित हुआ और उसे अपना कर जन साधारण को भयभीत कर दबदबा बनाए रखने में भरपूर सफलता मिली। अनपढ़ जनता क्या जानती? जनता के हित सधें या न सधें यह ग़ैर प्रासंगिक प्रश्न हो गया।

औपनिवेशिकता और उसकी विरासत संभालते समाज का नेतृवर्ग भाषा, मानस और समाज के गहरे रिश्ते को नज़रअन्दाज़ करता रहा। समाज की सामर्थ्य भी गौण हो गई। सत्ता सँभालना और सँभाले रखने के लिए हर जोड़-तोड़ करना ही प्रमुख हो गया। हम देश के विकास की योजना में यह भूल ही गए कि भाषा विचार की शक्ति, कल्पनाशीलता और सृजन की क्षमता से गहनता से जुड़ी हुई है। इतिहास साक्षी है कि मनुष्यता की सारी उपलब्धियाँ भाषा के साथ ही होती रही हैं। भाषा का विकास, उसका संस्कार, उसकी समृद्धि सुसंस्कृत समाज के लिए बुनियाद का काम करता है। भाषा मिलने से दुनिया बदल जाती है और उसके छिनने से कला, कौशल, ज्ञान, विज्ञान छोड़ें जीवन-यापन तक दूभर हो जाता है। अंग्रेजों ने भारतीय भाषाओं को अयोग्य ठहरा कर और अंग्रेज़ी को लाद कर देश की सांस्कृतिक और शिक्षिक यात्रा की गति को रोका ही नहीं उसे अस्त-व्यस्त कर पीछे मोड़ दिया। भारतीयों को अक्षम बना कर क्षमता का जो नया पैमाना खड़ा कर दिया उसके चलते ज्ञान-यात्रा में देश को हमेशा के लिए पीछे धकेल दिया। तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्वविद्यालय और पाणिनि, आर्यभट्ट, चरक, सुश्रुत, कौटिल्य जैसे विश्वस्तरीय आचार्यों के देश में आज शिक्षा चिंताजनक रूप से निचले स्तर पर पहुँच रही है। इस दुर्व्यवस्था के भाषाई आयाम को समझ कर आवश्यक कदम उठाना बड़ा आवश्यक है। निज भाषा को उन्नति का मूल स्वीकार करते हुए ही हम विकसित भारत के लिए प्रगति पथ पर अग्रसर हो सकेंगे। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि संवाद और संचार लोकतंत्र की रीढ़ होती है। यदि जनता को सोचने, अपनी बात कहने और अपना कार्य करने के लिए अपनी भाषा में अवसर मिले, जो उसे सहज में ही प्राप्त है, तो उसे बड़ी सुविधा होती है। उसे दूसरों पर यानी दलालों के भरोसे नहीं खुद को कार्य करने की शक्ति मिलेगी।

दुर्भाग्यवश देश में सरकारी तंत्र कुछ यों जड़ताग्रस्त हुआ कि सरकारी कामकाज के लिए अंग्रेज़ी को वरीयता दी गई। संविधान और सांसद गण हिंदी को राजभाषा स्वीकार तो किए ज़रूर पर अंग्रेज़ी को सह राजभाषा के रूप में जारी रखा। अर्थात् अंग्रेज़ी जैसे थी रहेगी, कारण कि उसकी तुलना में देशी भाषा कमजोर मानी गई। इसलिए हिंदी को सीख पढ़ कर काबिल होने और काम करने लायक़ बनाने के लिए समय तय हुआ। यह समय ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है। राष्ट्रभाषा की चर्चा राजनीतिक दृष्टि से ख़तरनाक मान कर अछूत मान ली गई। बात राजभाषा पर आ टिकी। उसका मुद्दा मुल्तबी रखा गया और उसे कुछ यूँ राजनीतिक मोड़ दिया गया कि तीन चौथाई सदी बीतने पर भी राजभाषा को वह अवसर नहीं मिल सका जिसके लिए संविधान ने हक़दार बनाया था। यह ज़रूर है कि राजभाषा और सम्पर्क भाषा की बहसें होती रहीं, उसके लिए विभाग गठित हुआ, समितियाँ भी बनीं, हिंदी के कई संस्थान बने, विश्वविद्यालय खड़े हुए, अंतरराष्ट्रीय सचिवालय बना, विश्व हिंदी सम्मेलन होने लगे, प्रशिक्षण के लिए संस्थान बने। समितियों ने राष्ट्रपति को प्रतिवेदन भेजे। हर मंत्रालय की हिंदी सलाहकार समिति बनी। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में केंद्रीय हिंदी समिति भी बनी, जिसकी बैठकें प्रायः पाँच-सात साल पर होती हैं।

कुल मिला कर हिंदी के नाम पर बहुत कुछ दिखता और सुनाई पड़ता रहा पर इच्छा शक्ति के अभाव में सब कछुआ चाल से होता रहा। हिंदी के लिए समितियों के अम्बार खड़े हो गए, ग्रंथ अकादमियाँ, साहित्य अकादमियाँ और क़िस्म-क़िस्म के पुरस्कार आदि की झड़ी लग गई। हिंदी के मर्मज्ञों को तरह-तरह के झुनझुने देकर बझाए रखना चालू हो गया। देशी भाषा के संभ्रांत लोग समितियों और पुरस्कारों के तामझाम में फँसे रहे। इस कोलाहल में हिंदी तथा अन्य भाषाओं के लिए ज़मीनी स्तर पर गुणवत्ता के साथ काम करने की गति धीमी रही। भारतीय भाषाओं को शिक्षा जगत में स्थान मिलना ज़रूर शुरू हुआ पर उसको लेकर असंतोष बना रहा। इस परिदृश्य में भारतीय भाषओँ के प्रयोग और भाषाई आचरण में आत्मविश्वास नहीं आ सका और गुणवत्ता के साथ समझौते भी होते रहे।

अंग्रेज़ी से हिंदी की ओर बदलाव का प्रतिरोध (या बदलाव न होने) का एक प्रमुख कारण आलस्य तो था पर अंग्रेजों द्वारा स्थापित तंत्र में आस्था और विश्वास भी एक प्रमुख कारण था। इसका परिणाम यह हुआ कि अंग्रेजों ने एक सदी से ज़्यादा समय के राज में तक जिस तरह के सोच-विचार, क़ायदे-क़ानून, वेशभूषा, और शिक्षा-दीक्षा के तौर-तरीक़े का अभ्यास कराया था वे सब प्रायः यथावत चलते रहे। उनके चलाए प्रतीक, नीति और प्रथाएँ भी अपनी जगह क़ाबिज़ रहे। यह सबकुछ उस ‘हिंद स्वराज’ के अनुरूप न रह सका जिसका सपना 1909 में महात्मा गांधी ने देखा था और गुजराती में लिपिबद्ध किया था। आगे के जीवन में इस सपने को जीते रहे। सन 1938 में ‘हिंद स्वराज’ के नए संस्करण छपते समय पूछने पर उन्होंने कहा कि मुझे इसमें कोई बदलाव करने की ज़रूरत नहीं दिख रही है। उनकी आखों के सामने भारत का लोक यानी जन साधारण उपस्थित था और हर नीति की परीक्षा करने लिए वे अंतिम जन के हित को ही कसौटी मानते थे। सन 1918 में वे अंग्रेज़ी मोह और मातृभाषा-राष्ट्रभाषा से असंतोष को लेकर वे मुखर हुए थे। उनका मानना था कि: ‘अंग्रेज़ी मोह के चलते प्रज्ञा अज्ञान में डूबी हुई है’, ‘अंधा नहीं जानता कि अपनी बेड़ियाँ किस तरह तोड़े’, ‘मातृभाषा की उपेक्षा करके उसकी हत्या नहीं करनी चाहिए और यह आग्रह किया कि ‘हमें हिंदी को भारत की राष्ट्र भाषा बनाने का गौरव प्रदान करें।’ उनका आकलन था कि ‘हिंदी की स्पर्धा करने वाली कोई दूसरी भाषा नहीं है।’ वे मानते थे कि ‘अपने देश की सभी भाषाओं की उन्नति होनी चाहिए पर हिंदी सभी को आनी चाहिए। हिंदुस्तान की राष्ट्रभाषा तो हिंदी ही होनी चाहिए।’ वे मातृभाषा को देश-प्रेम से जोड़ते हैं। वे कहते थे कि भारत के नव-निर्माण को अतीत की अच्छी बातों को अपना कर करना होगा और उसके लिए मातृभाषा का उपयोग आवश्यक है। उसे ही शिक्षा का माध्यम बनाना चाहिए। गांधीजी के शब्दों में ‘अंग्रेज़ी भाषा का प्रभाव श्री मैकाले की धारणा से भी आगे बढ़ गया। देशी भाषा का अनादर राष्ट्रीय आत्महत्या है।’ अपने भारत भ्रमण का हवाला देते हुए वे कहते हैं कि पूरे भारत में हिंदुस्तानी बोलने वाले मिले और उन्हें हिंदी के प्रयोग में कोई कठिनाई नहीं हुई।

भाषा सिर्फ़ प्रतिनिधित्व और अभिव्यक्ति ही नहीं करती बल्कि मनुष्य की रचना भी करती है क्योंकि हमारा सोचना भाषा में होता है। हम वही होते हैं जो सोचते हैं। एक लोकतांत्रिक देश की जीवन यात्रा में स्वभाषा की विशेष महत्ता होती है क्योंकि जन भागीदारी उसका आधार है। औपनिवेशिक दौर में भारतीय भाषाओं की दुर्गति हुई। जनता को जानने, समझने और संवाद करने के लिए उनकी ही भाषा शिक्षा, सरकार और नागरिक जीवन में प्रयुक्त होनी चाहिए। आज वैचारिक दृष्टि से परोपजीविता इतनी बढ़ चुकी है कि भाषा को लेकर बातचीत के मुद्दे भी बाहर से उधार आ रहे हैं। भारत की कार्यपालिका, शिक्षा और न्यायपालिका में अंग्रेज़ी कितनी हावी है, यह किसी से छिपा नहीं है। भाषाई उपनिवेशवाद से मुक्ति स्वतंत्र भारत में स्वराज लाने के लिए प्रमुख आवश्यकता है। भाषाओं की बिरादरी में फैला ऊँच-नीच का क्रम बदलना होगा और हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को सशक्त बनाना होगा। इस हेतु इन भाषाओं में ज्ञान-निर्माण की बहुत आवश्यकता है। उसे तकनीकी सहायता के साथ समृद्ध, समर्थ बना कर ही इस चुनौती से निपटा जा सकेगा।(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)