अवतार कृष्ण हंगल उर्फ ए.के. हंगल हिंदी सिनेमा के जाने-माने चरित्र अभिनेता थे। पेशावर के रहने वाले ए.के. हंगल विभाजन के समय कराची में थे और कम्युनिस्ट पार्टी में सक्रिय होने के कारण पाकिस्तानी सरकार ने उन्हें जेल में डाल दिया था। राजनैतिक कैदी के रूप में उन्हें लंबा समय वहां गुजरना पड़ा। सांप्रदायिक आधार पर कैदियों की अदला-बदली के आधार पर उन्हें नवंबर 1949 में छोड़ा गया।
ए.के. हंगल की मां की मृत्यु जब वह चार या पांच साल के थे तब सियालकोट स्थित उनके मामा के घर हो गई थी, जहां वे हर साल गर्मी की छुट्टियां मनाने जाते थे। उनके पूर्वज कश्मीरी पंडित थे और लखनऊ आकर बस गए थे और फिर वहीं से पंडित दयाकिशन हंगल यानी कि उनके दादा लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व पेशावर आकर बस गए थे। ए.के. हंगल की दो बड़ी बहनें थी, जिन्होंने उनकी माता की मृत्यु के बाद उनका लालन-पालन किया। उनके पिता पर पुनर्विवाह का बहुत दबाव था लेकिन उन्होंने दूसरा विवाह नहीं किया। उनकी प्राथमिक शिक्षा पेशावर में हुई। इस बीच उन्होंने बांसुरी बजाना सीख लिया था और वह स्केच यानी रेखांकन भी किया करते थे। वे पढ़ाई में खास अच्छे नहीं थे और किसी तरह खालसा हाई स्कूल से तृतीय श्रेणी में उन्होंने मैट्रिक परीक्षा पास की और उसके बाद पढ़ना-लिखना बंद कर दिया। उनके पिता उनको ब्रिटिश सरकार में सरकारी नौकरी दिलाना चाहते थे लेकिन उन्होंने मना कर दिया। तभी उनके पिताजी के एक दोस्त के बेटे ने जो इंग्लैंड से आया था उनसे दर्जी का काम सीखने के लिए कहा। हंगल को तो यह बात पसंद आई लेकिन उनके पिताजी को यह काम छोटा लगा। तब अपनी बहन के सहयोग से उन्होंने दिल्ली में लंदन से प्रशिक्षित एक व्यक्ति से दो वर्ष में यह कोर्स पूरा किया।उस जमाने में भी इसकी फीस 500 रुपए थी। काम सीख कर वह पेशावर वापस लौटे और उन्होंने अपनी दर्जी की दुकान खोल ली। पिताजी ने किशोरावस्था में ही उनकी शादी कर दी थी। इस बीच संगीत और नाटक के प्रति उनकी रुचि फिर जागृत हुई तो उन्होंने उस्ताद खुदाबख्श से बकायदा संगीत का प्रशिक्षण लेना शुरू किया। बाद में उन्होंने महाराज विशिनदास से तबला बजाना भी सीखा। उनके घर के पास ही एक श्री संगीत प्रिय मंडल था जिसके साथ वह नाटक भी करने लगे। 1938- 39 की बात है जब उन्होंने जुल्म ए कंस नाटक में नारद मुनि की भूमिका निभाई। यहां उन्होंने कई गीत भी गाने पड़े जो उन्होंने बहुत अच्छे ढंग से गाए। इसके चलते पेशावर में नए-नए खुले आकाशवाणी केंद्र में भी गाना शुरू कर दिया। इधर इनकी एक बहन जिसकी शादी नहीं हुई थी, उनकी मृत्यु से वह और उनके पिता बहुत आहत हुए और उन्होंने पेशावर शहर छोड़ कर कराची बसने का निर्णय लिया जो कि पेशावर की तुलना में उन्नत शहर था।
पेशावर से दो दिनों की ट्रेन यात्रा कर यह लोग कराची पहुंच गए। कराची स्टेशन पर उनको लेने उनके साले आए थे जो बहुत ही सुंदर थे और अपनी मुस्लिम पत्नी के साथ कराची में ही रहते थे। वह एक रेस्टोरेंट और कैफे के मालिक थे जो ब्रिटिश छावनी में चलता था और अंग्रेजों को पसंद था। यहां उन्होंने पहली बार पक्की और साफ-सुथरी सड़कें और उस पर ट्राम चलती देखी और फ्रॉक पहने लड़कियों को भी देखा। यहां पर भी उन्होंने कुछ दिन अपनी दुकान खोली और फिर वहां के सबसे बड़े कपड़ा व्यापारी और दर्जी इस्सर दास एण्ड संस के यहां कटर का काम करने लगे। उस जमाने में उनका वेतन 450 रुपए महीना था। वह मुख्य कटर से और 10 लोग उनके नीचे कार्य करते थे। आर्थिक हालात सुधरने के बाद उन्होंने फिर नाटक आदि में काम करना शुरू किया। उन्होंने कुछ नाटक भी लिखे। इस बीच वे कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बन गए। वह जहां नौकरी करते थे वहां उनको तो छुट्टियां और दूसरी सुविधाएं थीं लेकिन वहां के अन्य कर्मचारियों को नहीं थी तो उन्होंने वहां एक यूनियन बनाई और इसका परिणाम यह हुआ कि उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया।
आजादी के समय वह पाकिस्तान में ही थे। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के सांस्कृतिक दल इंडियन पीपल्स थियेटर एशोसियन यानी इप्टा के 1947 में अहमदाबाद में हुए वार्षिक अधिवेशन में शामिल होने के लिए वे कराची से यहां आए। यहां उनकी मुलाकात ख्वाजा अहमद अब्बास, बलराज साहनी, डॉ. राजाराम, दीना पाठक आदि से हुई और तुरंत ही दोस्ती हो गई। लेकिन उधर कराची में दंगे शुरू हो गए। किसी तरह अपने शहर पहुंचे और अपने मुस्लिम दोस्तों की सहायता से अपने परिवार को सुरक्षा मुहैया कराई। इस बीच पाकिस्तान सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और कराची के सेंट्रल जेल में रखा। शुरू में 6 महीने की जेल हुई जो आगे बढ़ती रही। अंत में रिहा होकर वह नवंबर 1949 में बंबई पहुंचे। उनकी पत्नी मनोरमा और उनका 9 वर्षीय पुत्र विजय उनके साथ था। उन्हें बंबई में कराची के कई मित्र मिले और वे मैरीन ड्राइव पर एक बड़ी कपड़े की दुकान पर कटर का काम करने लगे। हालांकि पाकिस्तानी शरणार्थी होने के कारण उन्हें मकान आदि ढूंढ़ने में बहुत मुश्किल हुई। थोड़े-थोड़े दिनों में उन्हें कई बार अपने घर बदलने पड़े फिर आखिरकार परेल में निर्मला निवास के चाल में उनको जगह मिली जहां वह लगभग 15 वर्ष रहे। अब वे इप्टा के नाटकों के सबसे सक्रिय सदस्य थे।
फिल्मों में उनका प्रवेश बहुत देर से 1962 में हुआ जब वे लगभग 40 वर्ष के थे। बासु भट्टाचार्य ने तीसरी कसम में उन्हें छोटा-सा रोल दिया। इसके बाद बासु भट्टाचार्य की फिल्म अनुभव और बासु चटर्जी की फिल्म सारा आकाश में भी उन्होंने काम किया। लेकिन उनकी सबसे पहले जो फिल्म रिलीज़ हुई वह शार्गिद थी। इसमें उन्होंने सायरा बानो के पिता की भूमिका की थी। इस बीच उन्होंने ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्म सात हिंदुस्तानी में भी काम किया। आगे उन्होंने 250 से ज्यादा फिल्मों में काम किया। उन्होंने कलात्मक और व्यावसायिक फिल्मों का संतुलन बनाए रखा। फिल्मों के लिए थियेटर को नहीं छोड़ा। बाद में वह इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे।
उनकी कुछ चर्चित फिल्में थीं ऋषिकेश मुखर्जी की गुड्डी, नमक हराम, अभिमान, गुलजार के साथ परिचय, आंधी मीरा, रमेश सिप्पी की शोले और सागर, सुभाष घई की खलनायक, मेरी जंग और एम एस सथ्यू के निर्देशन वाली गर्म हवा। उन्होंने तमस, माउंटेन द लास्ट वायसरॉय और लाइफ लाइन जैसे चर्चित सीरियलों में भी यादगार काम किया। उनकी अंतिम फिल्मों में लगान, शरारत कहां हो तुम और दस्तक शामिल थीं। इतना सन्नाटा क्यों है भाई- शोले के डायलॉग से अमर हुए हंगल साहब 26 अगस्त 2012 को अपने चाहने वालों को सन्नाटे में छोड़ गए।
चलते-चलते
एके हंगल को अपना जन्म दिवस नहीं पता था और किसी पत्रकार के कहने पर वह 15 अगस्त को अपना जन्मदिन मनाने लगे थे। बाद में इस पत्रकार ने पता किया कि
उनका जन्म 1 फरवरी 1917 को सियालकोट में हुआ था। किंतु हंगल साहब अपना जन्म दिवस 15 अगस्त को ही मनाते थे। ऐसा इसलिए क्योंकि यह दिन देश की आज़ादी से जुड़ा हुआ था। इप्टा भी उनका जन्म दिन 15 अगस्त को ही मनाती थी।