Home संपादकीय पृथ्वी के सभी घटकों का संरक्षण राष्ट्रीय कर्तव्य

पृथ्वी के सभी घटकों का संरक्षण राष्ट्रीय कर्तव्य

वायु प्रदूषण से राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली व राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के लोग हलकान हैं। दिल्ली के आसपास सांस लेना कठिन है। हवा विषाक्त हो गई है। एक्यूआई अपने उच्चतम स्तर पर है। जहरीली वायु उत्तर प्रदेश के बड़े हिस्से में प्रभाव डाल रही है। अजरबैजान की राजधानी बाकू में पर्यावरण को लेकर सीओपी 29 सम्मेलन चल रहा है। वहां पर्यावरणविदों ने दिल्ली के वायु गुणवत्ता सूचकांक पर गंभीर चर्चा की है। सरकार ने भी नए निर्माण रोकने, गैर बीएस6 डीजल बसों पर रोक जैसे कठोर कदम उठाए हैं। लेकिन आगे की राह कठिन है। अभी और कड़े निर्णयों की आवश्यकता है।

हम सब पृथ्वी पुत्र हैं। पृथ्वी ही पालती है। यही पोषण करती हैं। दूषित पर्यावरण से पृथ्वी का अस्तित्व संकट में है। वायु प्राण हैं। प्राण नहीं तो जीवन भी नहीं। सारी दुनिया का ताप बढ़ रहा है। रामकथा के अनुसार श्रीराम का जन्म पृथ्वी को निशिचर विहीन और पृथ्वी का का कष्ट दूर करने के लिए हुआ था। रामचरितमानस में तुलसीदास ने लिखा है, ‘‘अतिशय देख धरम की हानी परम सभीत धरा अकुलानी-धर्म की ग्लानि को बढ़ते देख कर पृथ्वी भयग्रस्त हुई और देवताओं के पास जा पहुंची। उसने देवों को अपना दुख सुनाया-निज संताप सुनाइस रोई-पृथ्वी ने रोते हुए अपना कष्ट बताया। शंकर जी ने पार्वती जी को बताया कि वहां बहुत देवता थे। मैं भी उनमे से एक था-तेहि समाज गिरजा मैं रहेऊ। रामचरितमानस के अनुसार आकाशवाणी हुई, ‘‘हे धरती धैर्य रखो। मैं स्वयं सूर्य वंश में आऊंगा और तुमको भार मुक्त करूँगा।‘‘ पृथ्वी भारतीय परंपरा में माता हैं। हम सबका आश्रय हैं। पृथ्वी को भार मुक्त करने के लिए परम सत्ता मनुष्य बनती है।

पर्यावरण संरक्षण वैज्ञानिकों के सामने भी चुनौती है। कहा जा रहा है कि पृथ्वी के प्राकृतिक घटक अव्यवस्थित हो गए हैं। अंतरराष्ट्रीय पृथ्वी दिवस हर साल आता है। इस महत्वपूर्ण दिवस पर कई संकल्प लिए गए। हिन्दुत्व की जीवन शैली में पर्यावरण संरक्षण अन्तर्निहित है। भारत के प्राचीन काल में ही पृथ्वी के प्रति संवेदनशील प्रीति और श्रद्धा थी। वैदिक पूर्वजों ने जल को माताएं कहा था। उन्होंने पृथ्वी को माता और आकाश को पिता बताया था। ऋग्वेद में जल को बहुवचन रूप में माताएं कहा गया है। यूनानी दार्शनिक थेल्स ने जल को आदि तत्व बताया है। प्रकृति के 5 महाभूतों में जल एक महत्वपूर्ण महाभूत है।

वायु प्रतिष्ठित देवता हैं ही। पूर्वजों ने वायु को अनेकशः नमस्कार किया है। वायु को शुद्ध बनाए रखना व्रत है। वायु मनुष्य शरीर में प्रवाहित है। वैदिक साहित्य में जल को अतिरिक्त आदर दिया जाता रहा है। वैदिक समाज में जल वृष्टि के कई देवता हैं। ऋग्वेद (1.164) में कहते हैं, ‘‘सत्कर्मों से समुद्र का जल ऊपर जाता है। वाणी जल को कंपन देती है। पर्जन्य वर्षा लाते हैं। भूमि आनंद मगन होती हैं।‘‘ यहाँ मुख्य बात है कि सत्कर्म के कारण समुद्र का जल ऊपर जाता है। सत्कर्मों से ही वायु शुद्ध रहती है। ऋषि वायु से स्तुति करते हैं कि, ”आप सुखद आशीष देते हुए प्रवाहमान रहें।” सत्कर्म महत्वपूर्ण हैं। ऐसे कर्म सांस्कृतिक कर्तव्य हैं।

वर्षा पर्जन्य की कृपा हैं। पर्जन्य देव पृथ्वी, जल, वायु, नदी, वनस्पतियों और सभी प्राणियों के संरक्षण से प्रसन्न होते हैं। वैदिक देवता प्रकृति की महत्वपूर्ण शक्तियां हैं। उन्हें कई विभागों में विभाजित किया जा सकता है। पहला द्युस्थानीय देवता हैं। द्यौ का ही एक रूप वरुण हैं। द्युस्थानीय देवताओं में द्यौ सबसे प्राचीन बताए गए हैं। आर्यों की ग्रीक शाखा के लोग ‘ज्योस‘ या ‘जिअस‘ के रूप में इस देवता की उपासना करते थे। द्यौ का प्रकट रूप हैं आकाश। ऋषि राहुगण गौतम द्य¨ को सबके पिता कहते हैं। इसी तरह वैदिक देवताओं का दूसरा विभाग है अंतरिक्ष स्थानीय देवता। ऋग्वेद के प्रतिष्ठित देवता इन्द्र इसी श्रेणी में आते हैं। इन्द्र मेघों में अवरुद्ध जल को मुक्त करते हैं। जल प्रवाह वर्षा द्वारा पृथ्वी की ओर आता है। मातरिस्वा, अपानपात आदि अंतरिक्ष स्थानीय देवता हैं। इनमें रूद्र मुख्य हैं। ऋग्वेद के एक मंत्र में रूद्र शिव को त्रयम्बक कहा गया है।

देवताओं के तीसरे वर्ग को पृथ्वी स्थानीय देवता कहा गया है। इस देव तंत्र में सोम अतिप्रतिष्ठित देवता हैं। ऋग्वेद के नौवें मण्डल के अधिकांश सूक्तों के देवता सोम हैं। सोम को सर्वश्रेष्ठ पेय बताया गया है और सर्वश्रेष्ठ औषधि भी। इसी श्रेणी में अग्नि देव भी आते हैं। ऋग्वेद में अग्नि सर्वशक्तिमान बताए गए हैं। बृहस्पति भी पृथ्वी स्थानीय देवता हैं। पृथ्वी भी पृथ्वी स्थानीय देवता हैं। नदियां भी देवता हैं। पूर्वजों के हृदय में पृथ्वी के प्रति माता का भाव है। अथर्ववेद का पृथ्वी सूक्त अंतर्राष्ट्रीय स्तर की कविता है। कहते हैं कि यहाँ भिन्न भिन्न विचारधाराओं वाले लोग रहते हैं। माता पृथ्वी सबका पोषण करती हैं। दुनिया के तमाम विद्वानों ने पृथ्वी सूक्त की प्रशंसा की है। उत्तर वैदिक काल और महाकाव्यों में भी पृथ्वी की स्तुति है। महाभारत के एक प्रसंग में श्रीकृष्ण पृथ्वी की उपासना करते हैं। वे पृथ्वी से ही पूछते हैं कि आप किस तरह की उपासना से प्रसन्न होती हैं। स्वयं पृथ्वी ने उत्तर दिया कि ‘‘तुम प्रति दिन चिड़ियों और निराश्रित पशुओं के लिए कहीं भी अन्न डाल दिया करो। मैं इसी में प्रसन्न होती हूँ।‘‘

पृथ्वी संकट चुनौतीपूर्ण है। वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी का अस्तित्व संकट में है। उत्तरी ध्रव और दक्षिणी ध्रुव में हमेशा बर्फ जमी रहती है। वह बर्फ पिघल रही है। पृथ्वी के एक भूखंड में खनिज, तेल और गैस भारी मात्रा में हैं। खनिज सम्पदा और गैस पाने के लिए तमाम देश लालायित रहते हैं। लेकिन वे पृथ्वी के अस्तित्व को बचाने की चिंता नहीं करते। अधिक बर्फ पिघलने से समुद्र का स्तर ऊपर जाएगा। दुनिया खतरे में होगी। अंधाधुंध औद्योगिक विकास समस्या है। नगरीकरण सुनियोजित योजना के अनुसार नहीं है। अनियोजित नगरीकरण से पर्यावरण का संकट बढ़ा है और जल, वायु प्रदूषण भी।

हिन्दू अनुभूति के अनुसार पृथ्वी, जल, वायु, नदी, वनस्पति और सभी प्राणियों के संरक्षण से देवता प्रसन्न होते हैं। संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व में मिस्र के शर्म अल शेख, इसके पहले स्कॉटलैण्ड के ग्लास्गो में भी सम्मेलन हुए थे। ब्राजील के रिओ डी जेनेरिओ नगर में पहला पृथ्वी सम्मेलन हुआ था। लेकिन अब तक के सारे आयोजन बेनतीजा रहे हैं। पृथ्वी माता व्यथित भयग्रस्त है। भूकम्प इसी के परिणाम हैं।

उपनिषद के ऋषियों ने वायु को प्रत्यक्ष ब्रह्म कहा है। यूनानी दार्शनिक अनक्सीमनस ने वायु को सृष्टि का आदि तत्व बताया है। उपनिषदों में रैक्व ने राजा जानश्रुति को वायु की महत्ता बताई है लेकिन वायु विषाक्त और व्यथित हैं। यह बेचैनी तूफानों में प्रकट होती है। जल अशांत हैं। अतिवृष्टि अनावृष्टि इसी का परिणाम हैं। एक वैदिक मंत्र में स्तुति है, ‘‘पृथ्वी शांत हों। अंतरिक्ष शांत हों। जल शांत हों। वनस्पतियां औषधियां शांत हों। शांति हमें शांति दें।‘‘ हिन्दू जीवन स्वाभाविक ही पर्यावरण प्रेमी है। पृथ्वी के सभी घटकों का संरक्षण राष्ट्रीय कर्तव्य है। गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया, ‘‘अन्न से प्राणी हैं। अन्न वर्षा से होता है। वर्षा यज्ञ से होती है और यज्ञ सत्कर्मों से होता है।‘‘ यह साधारण यज्ञ नहीं है। इसमें सत्कर्म की महत्ता है। भारतीय संस्कृति का अधिष्ठान सत्कर्म हैं। सत्कर्मों का प्रसाद शुद्ध वायु है।

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