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टैगोर से दूर जाता बांग्लादेश

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गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के लिखे अपने राष्ट्रगान को बांग्लादेश का वर्तमान शासन बदलना चाहता है। यानी अब बांग्लादेश अब उसी राष्ट्र गीत से दूर हो रहा है, जिसे उसने 1972 में अपनी स्थापना के वक्त धूमधाम से अपनाया था। इसकी वजह सिर्फ यही है कि इसके रचयिता टैगोर हिन्दू थे। अब आप समझ सकते हैं कि भारत के पड़ोसी देश में कठमुल्लों का असर कितना अधिक होता जा रहा है। बांग्लादेश में शेख हसीना वाजेद सरकार का तख्ता पलटने के बाद वे चाहते हैं कि गुरुदेव टैगोर के लिखे राष्ट्रगीत को बदल कर किसी अन्य गीत को बांग्लादेश का राष्ट्र गीत बना दिया जाए। देखिए, मुस्लिम-बहुल देशों में गैर-मुस्लिमों को जीवन के किसी भी क्षेत्र में बहुत कम स्पेस मिलता है। उन्हें हर तरह से सभी मायने में दूसरे दर्जें का नागरिक माना जाता है। मुस्लिम देशों में राष्ट्रीय पहचान के मुद्दों पर फैसला लेते वक्त धार्मिक नेताओं की पसंद और नापसंद को बहुत अहमियत मिलती है।

वैसे तो बांग्लादेश में नई सरकार के धार्मिक मामलों के सलाहकार ए.एफ.एम. खालिद हुसैन कह रहे हैं कि राष्ट्रगान को बदलने की “कोई योजना नहीं” है। सरकार “ऐसा कुछ नहीं करेगी जिससे विवाद पैदा हो।” हालांकि, जन्नत की हकीकत कुछ और है। बांग्लादेश में मौजूदा राष्ट्रगीत को बदलने की मांग जोर पकड़ रही है। बांग्लादेश के राष्ट्रगान”आमार सोनार बांग्ला” (‘मेरा स्वर्णिम बंगाल’) की धुन बाउल गायक गगन हरकारा के “अमी कोथाय पाबो तारे” से ली गई है, जो दादरा ताल पर आधारित है। इसकी आधुनिक वाद्य प्रस्तुति की व्यवस्था बांग्लादेशी संगीतकार समर दास ने की थी।

दरअसल, बांग्लादेश में अब बहुत कुछ अप्रत्याशित ही हो रहा है। वहां स्वतंत्रता आंदोलन में लड़ने वाले और उसका विरोध करने वाले एक साथ मिल रहे हैं। देश के राष्ट्रगान को बदलने की मांग अब्दुल्लाहिल अमान आज़मी भी कर रहे हैं। उनके पिता बांग्लादेश की जमात-ए-इस्लामी पार्टी के शिखर नेता थे। उन्हें स्वाधीनता आंदोलन के समय पाकिस्तानी सेना का साथ देने के कारण फांसी दे दी गई थी। उनके अलावा भी बांग्लादेश में बहुत से असरदार लोगों का कहना है कि उनके देश में एक हिन्दू के लिखे गीत को राष्ट्रगीत के रूप में थोपा गया, जिसे बदला जाना चाहिए। इस तरह की मांग करने वालों में कर्नल ओ. अहमद और कर्नल राशिद चौधरी भी शामिल हैं, जो 1975 में देश के संस्थापक मुजीब उल रहमान की हत्या की साजिश में दोषी ठहराए गए थे। दोनों अब कनाडा में रह रहे हैं।

गुरुदेव टैगोर को हिन्दू कवि कहने वाले अज्ञानी भूल रहे हैं कि वे मूल रूप से पूर्वी बंगाल से ही थे जो अब बांग्लादेश बन गया है और उनके परिवार की वहां प्रचुर संपत्तियां थीं। बांग्लादेश में क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम जैसे महान बांग्ला कवि को भी खारिज किया जा है क्योंकि उन्होंने हिन्दू देवी-देवताओं की स्तुति में लिखा है। बांग्लादेश में ऐसे गीत की मांग हो रही है जिसमें “दूसरी स्वतंत्रता” का उल्लेख हो। बांग्लादेश में न्यूज एजेंसी के संवाददाता के रूप में काम कर चुके वरिष्ठ पत्रकार और संपादक महेन्द्र वेद बताते हैं कि बांग्लादेश में राष्ट्रगान बदलने की मांग अगस्त 1975 में शेख मुजीब की हत्या के तुरंत बाद शुरू हुई थी। राष्ट्रपति खोंडकर मुश्ताक अहमद ने समिति गठित की थी, जिसने राष्ट्रगान को क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम या फ़ारूख अहमद के लिखे गीतों से बदलने का प्रस्ताव रखा था। हालाँकि, उस वर्ष नवंबर में खोंडकर के हटाए जाने के बाद यह पहल पूरी नहीं हुई।

राष्ट्रपति जिया उर रहमान के नेतृत्व में ‘राष्ट्रवादियों’ ने “एक अधिक बांग्लादेश-केंद्रित राष्ट्रगान” को अपनाने की मांग की। 1979 में कैबिनेट को भेजे गए एक पत्र में, तत्कालीन प्रधानमंत्री शाह अजीजुर रहमान, जो मुस्लिम लीग के पूर्व नेता थे, ने तर्क दिया कि अमार सोनार बांग्ला “राष्ट्रीय पहचान और संस्कृति के विपरीत” है क्योंकि इसे “एक ऐसे व्यक्ति द्वारा लिखा गया था जिसकी गैर-बांग्लादेशी पृष्ठभूमि थी।” उन्होंने “प्रथम बांग्लादेश” का प्रस्ताव रखा। जिया के राष्ट्रपति पद के दौरान राष्ट्रीय टेलीविजन और सरकारी कार्यक्रमों के दौरान “अमार सोनार बांग्ला” के बाद यह गीत बजाया जाता था। 1981 में जिया की हत्या के बाद यह बंद हो गया। यह गीत वर्तमान में जिया की बांग्लादेश नेशनल पार्टी (बीएनपी) का “पार्टी गीत” है। 2002 में जिया की पत्नी बेगम खालिदा जिया बांग्लादेश की प्रधानमंत्री थीं तब बांग्लादेश जमात-ए-इस्लामी के नेता मोतीउर रहमान निजामी ने “इस्लामी मूल्यों और भावना” को शामिल करने के लिए टैगोर के गीत में संशोधन करने का प्रस्ताव रखा था। हालांकि देश की कैबिनेट ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था।

बहरहाल, बांग्लादेश के संस्थापक नेता शेख मुजीब की मूर्तियाँ नष्ट कर दी गईं और पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की पुण्यतिथि मनाई गई। बहुत साफ है कि बांग्लादेश अब बदल रहा है। उस पर कठमुल्लों का असर बढ़ता जा रहा है। अब बांग्लादेश उस पाकिस्तान के करीब आ रहा है जिसकी सेना ने ईस्ट पाकिस्तान में भयंकर कत्लेआम किया था। 1971 में बांग्लादेश में हिन्दुओं पर पाकिस्तानी सेनाओं का कहर टूटा था। उस समय खुलना, ख़ुस्तिया, इसर्दीह आदि स्थानों पर क्या नरसंहार हुआ, क्या तबाही का आलम था, एक युद्ध संवाददाता के रूप में उसका प्रत्यक्षदर्शी गवाह स्वयं मैं हूँ। न्यूयार्क टाइम्स ने अपनी 29 जून, 1971 की एक लोमहर्षक रिपोर्ट में पूर्वी पाकिस्तान के शहर फरीदपुर में सेना के आतंक की कहानी बयां की थी। पाकिस्तानी सेना ने फरीदपुर में हिंदुओं की दुकानों पर बड़े पीले रंग से ‘एच’ लिख दिया था जिन्हें सेना ने लूटना था। जाहिर है, ‘एच’ का मतलब हिन्दुओं की दुकानों से था। फरीदपुर के दस हजार हिंदुओं में से अधिकतर की हत्या कर दी गई थी और बचे-खुचे भारत में जान बचा कर चले गए थे।

दरअसल, 1971 में पाकिस्तानी फौजों ने फरीदपुर ही नहीं, बल्कि सारे पूर्वी बंगाल में हिन्दुओं को मारा था। पाकिस्तानी सेना पूर्वी पाकिस्तान से हिन्दुओं का नामोनिशान मिटाने पर लगी हुई थी। अब ये सवाल नहीं है कि जब भारत का बंटवारा हुआ था, उस समय पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) में हिन्दू वहां की आबादी के 30 से 35 फीसदी के बीच थे या अधिक। सवाल यह है कि क्या बांग्लादेश हिन्दू-विहीन हो जाएगा और वहां गुरुदेव टैगोर के लिखे राष्ट्र गीत को खत्म कर दिया जाएगा?