मदरसा शिक्षा इस वक्त देश भर में चर्चा का विषय है। मामला उच्चतम न्यायालय तक पहुंच चुका है और उसमें सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश भी दे दिए हैं कि मदरसों की मान्यता रद्द नहीं होगी जो शिक्षा के अधिकार अधिनियम (आरटीई) 2009 का पालन नहीं कर रहे। न ही गैर मान्यता प्राप्त मदरसों से गैर मुस्लिम छात्रों को सरकारी स्कूलों में ट्रांसफर किया जाएगा और इस तरह से कोर्ट ने अपने आदेश के माध्यम से राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के निर्देशों पर रोक लगा दी है।
दरअसल, राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) ने उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव को पत्र लिखकर कहा था कि जो मदरसे आरटीई अधिनियम के प्रावधानों का पालन नहीं कर रहे हैं, उनकी मान्यता वापस ली जाए। इसके बाद एक निर्देश एनसीपीसीआर का 25 जून 2024 को शिक्षा और साक्षरता विभाग, शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार को दिया गया, जिसमें कहा गया कि सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में मौजूद मदरसों का निरीक्षण किया जाए और जो मदरसे आरटीई के मानदंडों का पालन नहीं कर रहे हैं, उनकी मान्यता और यू-डीआईएसई (यूनिफ़ाइड डिस्ट्रिक्ट इंफ़ॉर्मेशन सिस्टम फ़ॉर एजुकेशन) भारत में स्कूलों के बारे में जानकारी रखने वाला एक डेटाबेस जो स्कूल शिक्षा विभाग ने विकसित किया, उस कोड को तुरंत प्रभाव से वापस लिया जाए। अब इस निर्देश के विरोध में जमीयत-उलमा-ए-हिंद ने एक याचिका लगाई और उसकी सुनवाई करते हुए शीर्ष अदालत ने यह अंतरिम आदेश जारी किया है। केंद्र और राज्य सरकारों को एनसीपीसीआर के निर्देशों के अनुसार कार्रवाई नहीं करने को कहा है।
यहां जमीयत-उलमा-ए-हिंद की ओर से जो तर्क रखा गया, वह संविधान में दिए गए अल्पसंख्यकों के अनुच्छेद 30 का था। कहा गया कि यह उनको दिए गए शिक्षा के अधिकार का उल्लंघन है। जमीयत उलमा-ए-हिंद की ओर से वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह ने इस मामले में न्यायालय से अनुरोध किया कि याचिका में सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को पक्षकार बनाया जाए। कोर्ट ने इस अनुरोध को स्वीकार करते हुए याचिकाकर्ता को अनुमति दी कि वे सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को इस याचिका में पक्षकार बनाएँ। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान सभी पक्षों को सुनने के बाद जो निर्णय दिया है, उसमें साफ कहा गया कि राज्य या केंद्र सरकार एनसीपीसीआर के निर्देशों पर कार्रवाई नहीं करेगी। अब न्यायालय के आए इस अंतरिम आदेश के बाद अभी उन सभी मदरसों पर कोई कानूनी कार्रवाई नहीं होगी जो आरटीई अधिनियम का उल्लंघन करते या किसी भी तरह से पालन ही नहीं करते हैं।
वस्तुत: देखने में यह सीधा और साफ मामला दिखाई देता है, जिसमें एक तरफ एनसीपीसीआर है जिसका निर्माण ही भारत सरकार और राज्य सरकारों ने बच्चों के संपूर्ण हित को देखने के लिए किया है और जिसका कार्य पूर्णत: बच्चों का हित है जब तक कि उसके संज्ञान में आए किसी बच्चे को पूरी तरह से न्याय नहीं मिल जाता या उसका हित संरक्षित नहीं हो जाता है। दूसरा इसका पक्ष जमीयत-उलमा-ए-हिंद है जो अपने आप को मुसलमानों का रहनुमा मानने वाला संगठन है और तीसरा पक्ष न्यायालय है। जिसे संविधान के प्रकाश में इन दोनों के बीच के विवाद को लेकर या समस्या के निराकरण के लिए निर्णय करना है और यह निर्णय जो होना है उसके लिए अल्पसंख्यकों के अनुच्छेद 30 का आधार लिया जा रहा है।
उल्लेखनीय है कि अनुच्छेद 30 संविधान के भाग 3 में शामिल है। जिसके अंतर्गत शिक्षण संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन करने का अल्पसंख्यक-वर्गों का अधिकार का वर्णन है। अनुच्छेद सभी अल्पसंख्यक चाहे वे किसी भी रिलीजन या भाषा पर आधारित हों, उन्हें अपनी प्राथमिकता के शैक्षणिक संस्थानों को विकसित करने और प्रबंधित करने का अधिकार देता है। इसमें लिखा गया-(1). सभी अल्पसंख्यकों (धार्मिक और भाषाई) को देश में अपनी पसंद के शैक्षिक संस्थानों को स्थापित और संचालित करने का अधिकार होगा। (1ए). अल्पसंख्यक द्वारा स्थापित और प्रशासित किसी शैक्षणिक संस्थान की किसी भी संपत्ति के अनिवार्य अधिग्रहण के लिए कोई कानून बनाते समय, राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि ऐसा कानून, अल्पसंख्यकों के अधिकारों को ना तो रोकोगा और ना ही निरस्त करेगा। (2) राज्य सरकार, अल्पसंख्यक द्वारा शासित किसी भी शैक्षणिक संस्थान को आर्थिक सहायता देने के मामले में, भेदभाव नहीं करेगी। आर्टिकल 30 के तहत दी गई सुरक्षा केवल अल्पसंख्यकों तक सीमित है और इसे देश के सभी नागरिकों तक विस्तारित नहीं किया जाता है। आर्टिकल 30 अल्पसंख्यक समुदाय को यह अधिकार देता है कि वे अपने बच्चों को अपनी ही भाषा में शिक्षा प्रदान करा सकते हैं।
अब हम यहां इस आर्टिकल 30 पर शिक्षा के स्तर को संपूर्ण भारत में देखें, तब ध्यान में आता है कि देश में तीन प्रकार के अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान हैं। एक वे जो सरकार से मान्यता लेने के साथ-साथ आर्थिक सहायता की मांग करते हैं। दो वह संस्थाएं जो राज्य से सिर्फ मान्यता की मांग करती हैं और आर्थिक सहायता नहीं लेती। तीन वे अल्पसंख्यक संस्थान हैं जो न तो राज्य से मान्यता और न ही आर्थिक सहायता की माँग करते हैं। अब इस संबंध में पहले मलंकारा सीरियन कैथोलिक कॉलेज केस (2007) के मामले में दिए गए एक सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को देखें, जिसमें कहा गया कि; अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यक समुदायों को दिए गए अधिकार केवल बहुसंख्यकों के साथ समानता सुनिश्चित करने के लिए हैं और इनका इरादा अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों की तुलना में अधिक लाभप्रद स्थिति में रखने का नहीं है। इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि इस बात के कोई सबूत नही हैं कि अल्पसंख्यकों को कानून से बाहर कोई भी गैर-कानूनी अधिकार दिया गया है। यानी कि राष्ट्रीय सुरक्षा, राष्ट्रीय हित, सार्वजनिक व्यवस्था,भूमि, सामाजिक कल्याण, कराधान, स्वास्थ्य, स्वच्छता और नैतिकता आदि से संबंधित सामान्य कानूनों का पालन देश के अल्पसंख्यकों को भी बहुसंख्यकों की तरह ही करना अनिवार्य है ।
अब इस संदर्भ में जो तीन प्रकार की अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थाएं हैं, उनकी समीक्षा करेंगे तो पूरी तरह से साफ हो जाता है कि भले ही कोई अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान सरकार से अनुदान न ले, कोई सहयोग न लेवे, किंतु उसे राज्य के नियमों का पालन करना अनिवार्य है। ये नियम; शैक्षणिक मानकों, पाठ्यक्रम, शिक्षण कर्मचारियों के रोजगार, अनुशासन और स्वच्छता आदि से संबंधित हैं। जिन अल्पसंख्यक संस्थानों खासतौर से मदरसों को लेकर कहा जा रहा है कि उन्हें पूरी छूट है अल्पसंख्यक संस्थान होने के कारण से, तब भी यह संभव नहीं हो सकता कि उन पर कोई निगरानी नहीं होगी। क्योंकि बालक राज्य की भी अहम जिम्मेदारी है, वह सिर्फ अभिभावक, अल्पसंख्यक संस्थान की जिम्मेदारी नहीं है, यदि ऐसा नहीं होता तो भारत सरकार एवं राज्य सरकारों को बच्चों के हित के लिए बाल आयोग बनाने की जरूरत ही क्या थी? और यदि बाल आयोग ही बच्चों के हित से जुड़े मुद्दे नहीं उठाएगा तब फिर इन्हें बंद करने की ही सलाह उच्चतम न्यायालय क्यों नहीं दे देता है!
वस्तुत: जो अल्पसंख्यक संस्थान आज यह तर्क दे रहे हैं कि वे न तो राज्य से मान्यता और न ही आर्थिक सहायता की माँग करते हैं और उन्हें आर्टिकल 30 के तहत छूट है तो वास्तव में वह गलत समझ रहे हैं। यहां तीसरे प्रकार के संस्थान अपने नियमों को लागू करने के लिए स्वतंत्र भले ही हो सकते हैं, लेकिन उन्हें श्रम कानून, अनुबंध कानून, औद्योगिक कानून, कर कानून, आर्थिक नियम, आदि जैसे सामान्य कानूनों का पालन करना पड़ेगा, यदि वे ऐसा नहीं करेंगे तो समाज में, देशभर में अराजकता फैल जाने का खतरा है। क्योंकि यदि वे अपने शिक्षण संस्थान अपने हिसाब से चलाना चाहते हैं, तब उन्हें राज्य के स्तर पर स्कूल शिक्षा विभाग से मान्यता लेने की जरूरत ही नहीं है, ऐसे में कोई अल्पसंख्यक शिक्षा केंद्र क्या पढ़ा रहा है, यह कौन देखेगा, यदि देश विरोधी, समाज तोड़ने वाली शिक्षा दी जा रही होगी, तब फिर देश कहां जाएगा, स्वत: ही समझा जा सकता है। फिर बच्चों को इन संस्थानों में जो मूलभूत आवश्यकता बालक के अधिकार स्वरूप मिलना चाहिए वह उसे मिल रही हैं या नहीं, यह कैसे मॉनिटर किया जा सकेगा? तब तो बच्चों के साथ कुछ भी वहां अमानवीय घटेगा तो उसका जिम्मेदार कौन होगा? क्या पहले अपराध होने का इंतजार किया जाएगा? फिर उसके बचाव के बारे में सोचेंगे! यदि ऐसी संस्थाओं में बच्चों से श्रम कराया जाएगा तो उसे फिर नहीं रोका जा सकेगा। फिर तो शिक्षा के नाम पर ये अल्पसंख्यक संस्थान कितनी भी आर्थिक लूट मचाएंगे, उस पर भी कोई रोक नहीं हो सकती!
फिर एक संदेह यह भी है कि अल्पसंख्यक के नाम पर ये बहुसंख्यकों को लालच देकर उनका कन्वर्जन करेंगे, उसे भी रोका नहीं जा सकता है। क्योंकि वे तो अल्पसंख्यक संस्थान हैं और उन्हें आर्टिकल 30 से अपार शक्ति संविधान से मिली हुई है, वे अपने संस्थान में जो चाहें वह करें। उदारहण के तौर पर हाल ही में मध्य प्रदेश के रतलाम जिले में ‘दारुल उलूम आयशा सिद्धीका लिलबिनात’ बच्चियों के लिए संचालित हो रहे मदरसा पर राज्य बाल संरक्षण आयोग ने छापा मारा था, वहां पाया गया कि बच्चियों के कक्ष में कैमरे लगे हैं बच्चियों के सोने, उठने जैसे हर पल को कैद किया जा रहा था। क्या कोई सभ्य समाज में इस कृत्य को सही ठहरा सकता है। मप्र बाल आयोग ने तब तत्काल इस मदरसा के व्यवस्थापकों से प्रश्न किया था कि क्या आप अपने निजि कक्ष (बेडरूम) में भी केमरे लगाकर रखते हो? जिसका किकोई जवाब उनके पास नहीं था।
आप सोचिए, देश में इस प्रकार के कितने मदरसे एवं अन्य अल्पसंख्यक संस्थान होंगे जो अल्पसंख्यक होने का अनुचित लाभ उठा रहे हैं। अब यदि इन अल्पसंख्यक संस्थानों को आर्टिकल 30 के नाम पर यूं ही छोड़ दिया जाएगा, तब देश में क्या स्थिति बनेगी, जबकि अभी निगरानी संस्थानों के होते हुए यह इस प्रकार से गलत अपनी मनमानी करते पाए जाते हैं। आयोग ने कई अल्पसंख्यक संस्थानों को कन्वर्जन कराते हुए पकड़ा है, क्या भारत का संविधान किसी भी प्रकार के कन्वर्जन कराने की अनुमति लालच, लोभ या भय दिखाकर करने की किसी को देता है? यदि नहीं तो फिर जब ये अल्पसंख्यक संस्थान इसमें लिप्त पाए जाते हैं तो क्या उन पर कानूनी कार्रवाई नहीं होनी चाहिए? क्या उन्हें बंद नहीं कर देना चाहिए? या उन्हें आर्टिकल 30 का लाभ देते रहते हुए मनमानी करने की पूरी छूट देना जारी रखना उचित है?
वास्तव में ऐसे ही कई सवाल हैं जिनके उत्तर अनेक भारतीय आज उच्चतम न्यायालय में खासकर सीजेआई डी.वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की बेंच से चाहते हैं। अल्पसंख्यकों के अनुच्छेद 30 के तहत शिक्षा के अधिकार का उल्लंघन मामले में जमीयत उलमा-ए-हिंद बनाम राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग और अन्य के मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने यह जो सुनिश्चित किया कि फिलहाल एनसीपीसीआर और विभिन्न राज्यों द्वारा जारी निर्देशों के आधार पर किसी भी मदरसे के खिलाफ कार्रवाई नहीं की जाएगी। उसके आलोक में अब अपेक्षा यही है कि सही जानकारी संविधान के प्रकाश में सभी तक पहुंचे।