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एनजीटी बनाने का मकसद आहत नहीं होना चाहिए

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शैलेश सिंह
एक तो कुंभ टाइम, दूसरा करोड़ों लीटर भंैस का खून-पानी यमुना में मिल रहा! भला बताओ इसे कोई पीकर दिखा सकता है? अगर नहीं तो इसे संगम मिलन से कैसे रोका जा सकता है। लिहाजा एनजीटी को प्रदूषण बोर्ड खत्म करना चाहिए, या सुप्रीम कोर्ट को सिफारिश लिखनी चाहिए। एक तो दुनिया का सबसे बड़ा मेला, फिर उसी आस्था को खंडित बताती प्रदूषण बोर्ड की रिपोर्ट। क्योंकि यूपी प्रदूषण ने लिखा गंगा का पानी पीने लायक है, केंद्रीय प्रदूषण ने लिखा गंगा का पानी नहाने लायक भी नहीं, उसमे वो जीवाणु मिले हैं जो जानवरों के खून में होते है। भला बताओ एक रिपोर्ट पीने लायक लिख रही, दूसरी रिपोर्ट नहाने लायक भी नहीं लिख रही, अब वही दोनों रिपोर्ट एनजीटी की सुनवाई का हिस्सा हैं, और दो में एक रिपोर्ट झूठी है। अब सवाल है कि इन्हीं अफसरों ने एनजीटी में और कितनी झूठी रिपोर्ट दी होगीं, झूठ के आधार पर कितने मामले खराब कराये होंगे, सुनवाई भटकायी होगीं, इसे नकारना सिर्फ बेईमानी है। लिहाजा आसान है कहना कि एनजीटी के आदेश का कोई फायदा नहीं हुआ, गाइडलाइन बनाना-ना-बनाना एक जैसा रहा, मगर एनजीटी बनाने के मकसद को नुकसान होने लगा, आस्था की भी रक्षा नहीं हो पाई। लिहाजा सुप्रीम कोर्ट को गंभीर होना चाहिये, अपनी बनाई हुई संस्था की सफलता-असफलता पर विचार करना चाहिए, क्योंकि जिस देश की कोई नदी पीने लायक नहीं, हवा सांस लेने लायक नहीं, सब्जी-फल हम खा रहे, या वो हमें पी रहे, इसपर विचार नहीं, पर्यावरण से सम्बंधित 9 अहम कानून का फायदा नहीं। 12 साला सुनवाई में कई गाइडलाइन बनाना-ना-बनाना एक जैसा देखा जाये, उस देश का भविष्य अच्छा नहीं कहा जा सकता, जिस देश की प्राकृतिक संपदायें अपराध के कब्जे में हों, वहां का कानून सुप्रीम हाथ में जाना चाहिए।