Home संपादकीय अभी राहुल को मीलों चलना है…!

अभी राहुल को मीलों चलना है…!

केंद्रीय गृह मंत्रालय की छानबीन से पता चला कि राहुल गांधी अपनी सभाओं में भारतीय संविधान की फर्जी प्रति दिखाते हैं। गृहमंत्री अमित शाह ने (09 नवंबर 2024) इस बात को झारखंड की छतरपुर विधानसभा सीट पर चुनावी सभा में उजागर भी किया। शाह ने कहा, ”राहुल गांधी जनसभाओं में संविधान के नाम पर लाल कवर वाली जो किताब लहराते हैं, उसमें ऊपर भले ही भारत का संविधान लिखा है, लेकिन उसके पन्ने कोरे हैं। वह नकली किताब है। यह भारत के संविधान और बाबासाहेब आंबेडकर का अपमान है।” किन्तु मेरी राय में राहुल गांधी पर यह मिथ्याचार का आरोप इसलिए नहीं लग सकता क्योंकि संविधान उनके जन्म से 25 वर्ष पूर्व पारित हुआ था। राहुल का ज्ञान तो केवल अपनी पैदाइश के बाद की घटनाओं तक ही सीमित हैं।

राहुल की अनभिज्ञता का एक और नमूना देखिये। यह प्रमाणित तथ्य है कि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और भीमराव आंबेडकर ने प्रस्तावना में ”सेक्युलर और सोशलिस्ट” शब्द शामिल करने में पक्षधर नहीं थे। मगर राहुल इसी की पैरोकारी करते हैं। कृपया 17 अक्टूबर 1949 की संविधान सभा की कार्यवाही देख लें। संसद भवन के संदर्भ शाखा अथवा #Google पर देख सकते हैं। गया (बिहार) से निर्वाचित सदस्य बाबू ब्रजेश्वर प्रसाद (संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद के साथी) ने सर्वप्रथम संशोधन प्रस्ताव रखा था कि प्रस्तावना में ”हम भारत के लोग” के बाद सेक्युलर तथा सोशलिस्ट शब्द जोड़ दिए जाएं, नेहरू ने इसे नजरअंदाज कर दिया। आंबेडकर चुप्पी लगा गए। इस संशोधन पर न हाथ उठे, न ध्वनि मत, न डिविजन मांगा गया। इसका कारण था की नेहरू की राय में यदि नए गणराज्य को सेक्युलर स्टेट कह देते तो भारत में बचे मुसलमान मानते कि की राष्ट्रधर्म विरोधी है। संशोधन के प्रस्तावक ब्रजेश्वर प्रसाद धर्मनगरी गया के वासी थे। लखनऊ विश्विद्यालय के पढ़े थे। खेतिहर मजदूरों के पुरोधा थे। आंबेडकर जो, 1942 में अंग्रेजी वाइसराय के मंत्री थे, अपनी मसौदा समिति से इस संशोधन को मनवा नहीं पाए। कांग्रेसी प्रधानमंत्री सरदार मनमोहन सिंह ने परिभाषा दी (9 दिसम्बर 2006) कि ”सेक्युलर सोशलिस्ट भारत के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है।”

संसद में राष्ट्रवादी मुसलमानों का इस संविधान के प्रति नजरिया कैसा रहा ? सैय्यद फजलुर हसन उर्फ हसरत मोहानी ने इस संविधान पर हस्ताक्षर करने ने इनकार कर दिया था। उनकी नजर में ये दस्तावेज त्रुटियों से भरा था। नेहरू स्वयं हसरत मोहानी को मनाते रहे। जिन्ना के इस विरोधी, ”इंकलाब जिंदाबाद” का नारा देने वाले, कम्युनिस्ट शायर रहे हसरत मोहानी पर हर हिंदू को नाज है। अतः मूल मसला बनता है कि क्या सात दशक पुराना भारतीय संविधान बदला जाना चाहिए ? युगानुसार परिवर्तन का तकाजा क्या वस्तुनिष्ठ नहीं होगा ? राष्ट्र कब तक गातिहीन या प्रतिगामी दशा में रहेगा?

यह मुद्दा अनंतकुमार दत्तात्रेय हेगडे़ ने अपने ढंग से उठाया (दिसंबर 2017)। हेगड़े ने ”सेक्युलर” वाला पूर्वसर्ग निरस्त करने की बात की थी। आखिर आंबेडकर और नेहरू ने संविधान की प्रस्तावना में सेक्युलर शब्द लगाया ही नहीं था। वह तो आपातकाल (1975-77) में इंदिरा गांधी ने जोड़ा था। तो क्या भारत पहले पच्चीस वर्षों तक सेक्युलर नही था ?

मसौदा समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव आंबडेकर ने तो राज्यसभा में एक दफा यहां तक कह डाला था, ”मैं प्रथम व्यक्ति होऊंगा जो इस संविधान को जला दूंगा” (राज्य सभाः 19 मार्च 1955)। तब पंजाब के कांग्रेसी सदस्य डॉ. अनूप सिंह ने चौथे संशोधन (निजी संपत्ति विषयक) पर चर्चा के दौरान डॉ. आंबेडकर से उनकी भस्म कर डालनेवाली हुंकार पर जिरह भी की थी। सांसद तथा संपादक/सांसद स्वर्गीय के. रामाराव ने राज्यसभा में डॉ. आंबेडकर की संविधान जला डालनेवाली उक्ति पर टिप्पणी की थी, ”डॉ. आंबेडकर एक सियासी पहेली, एक मनोवैज्ञानिक गुत्थी तथा मानसिक तौर पर रुग्ण हैं।” यदि आज हेगड़े ने कह दिया होता है कि सेक्युलर संविधान को जला दो तो लोग उन्हीं को भस्म कर देते। आखिर भारतीय संविधान कोई गीता, बाइबिल या कुरान तो हैं नहीं कि जिसमें तब्दीली वर्जित हो। यह तो मानवकृत है। फिर मानव कब से सर्वथा दोषमुक्त हो गया ?

नेहरू से मोदी तक के दौर में इसी संविधान को 105 बार संशोधित किया जा चुका है। ताजातरीन वाला है वस्तु एवं सामान्य सेवा कर (जीएसटी) हेतु किया गया संशोधन। इंदिरा गांधी ने तो 42वें संशोधन (1976) द्वारा सर्वोच्च न्यायालय से ऊपरी पायदान पर संसद को रखा था। तब संसद में कांग्रेस का अपार बहुमत था। सारा विपक्ष जेल में था। तभी संसदीय प्रणाली की जगह राष्ट्रपति पद्धति का प्रस्ताव विचाराधीन था। भला हो जनता पार्टी सरकार का कि दोनों अधिनायकवादी प्रस्तावों को तज दिया गया।

भारतीय संविधान के प्रति मोह पालने वालों को कुछ तथ्य पता चलना चाहिए। केवल 166 दिन में निर्मित इस संविधान के मसौदे पर ही प्रथम चरण में ही दो हजार संशोधन पेश हुए थे। संविधान सभा के सदस्य वयस्क मताधिकार के आधार पर वोटरों के माध्यम से निर्वाचित नहीं हुए थे। प्रांतीय विधान मंडलों के विधायकों द्वारा 1946 में परोक्ष रूप से 292 लोग चुने गए थे। 29 रजवाड़ों ने 70 प्रतिनिधि मनोनीत किए थे। इन सबका जनाधार क्षीण था। हर सदस्य वर्ग हित का रक्षक तथा पोषक था। संविधान बनने के समय दिल्ली की सड़कों पर विपक्ष ने नारा लगाया था-”यह आजादी झूठी है, देश की जनता भूखी है।” नेहरू के तेवर चढ़ जाते थे। मगर आज उनके पडनाती का वही अंदाज है। वैसी ही बात करते हैं।

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