अच्छा हुआ जो सुधर गई गंगा, वरना फिर बांटने पड़ जाते 36 करोड़ रूपए मीडिया को! खैर 22238 करोड़ से नहीं सुधरी! 36 करोड़ से नहीं सुधरी मगर लाॅकडाउन ने सिर्फ 25 दिन में सुधार दी गंगा की धार, जमीन दिखने लगी, रंग बिरंगे काले सफेद पत्थर दिखने लगे, यही नहीं जीवनदायिनी गंगा और यमुना के साथ साथ देश भर की नदियों के पानी में कहीं नीला तो कहीं हल्का मटमैला एक साथ देखा गया, बदबू मुक्त देखा गया। तो क्या सिस्टम के साथ साथ देश भर के जिम्मेदार हुक्मरान, अफसर और उन मीडिया प्रबंधनों को भी शर्म आई? जिन्होंने चंद चांदी के टुकड़ों के आगे विषैली गंगा को भी नमामि गंगे, स्वच्छ गंगे, निर्मल गंगे जैसे तमाम नाम दिए, अगर नहीं आई तो क्या आगे भी ऐसा ही चलेगा, यह वो सवाल हैं जिनके जबाब इस मनमानी, अयोग्यता, बेशर्मी के दौर में किसी के पास नहीं हैं। कहने के लिए तो भाजपा शासन की शुरूआत और नारा ही मां गंगे ने बुलाया है से हुई, कई बार कई तरह के बजट जारी हुए, कई मंत्री आए गए, कई मंत्रालय के नाम भी बदले मगर नतीजा के पात रहा, यह लाॅकडाउन ने सिस्टम को ही नहीं बता दिया बल्कि इंसान को दिखा दिया कि सृष्टि अपने पर आए तो 200 और 400 किमी दूर से हिमालय पहाड़ ही नहीं साफ देखा जा सकता, हवा का मूलरूप मतलब सेहतमंद हवा ही नहीं देखी जा सकती, आग मुक्त, धुआं मुक्त जंगल ही नहीं देखे जा सकते बल्कि और यमुना की धार भी नीली आसानी से देखी जा सकती है। तो पहले समझिए जो सीपीसीबी 2525 किलो मीटर लम्बी गंगा पर पहले 62 जगह सैंपल करती थी, वह 2018 के बाद 80 जगह सैंपल करने लगी, और तकरीबन रिपोर्ट डराने वाली रही मगर लाॅकडाउन के समय एनजीटी द्वारा कराए गए पुनः नमूना में स्पष्ट हो गया कि गंगा का पानी कई जगह पीने योग्य मिला, कलर और गंदगी में खासा सुधार हुआ। खैर गंगा सफाई पर कब क्या हुआ! 22238 करोड़ की लागत से 221 परियोजनाओं चालू की गई, इनमें 17485 करोड़ से 105 परियोजनायें सीवेज ट्ीटमेंट प्लांट के लिये थीं, जिनमें जून 2018 तक 26 परियोजनायें ही पूरी हुयीं चार साल में, यह हम नहीं कह रहे बल्कि द वायर के लिए लिखी गई आरटीआई में बताया गया, इसके अलावा सीएजी रिपोर्ट 2017 में और भी पोल खोली गई, सीएजी ने तो गंगा सफाई मिशन ही अधूरा रहा बताया। द वायर के हिसाब से 2014 से लेकर जून 2018 तक 5523 करोड़ जारी जिसमें 3867 करोड़ खर्च हुये। यही नहीं जून 2014 में शुरू हुआ नमामि गंगे फ्लैगशिप कार्यक्रम! लक्ष्य था गंगा को प्रदूषण मुक्त करना, संरक्षण और कायाकल्प करना! काम थे सीवेज इन्फ्रास्ट्रक्चर निर्माण, गंगा ग्राम, वनीकरण, रिवर फ्रंट, नदी सफाई, औद्योगिक कचरे का निस्तारण, जैव विविधता और जन जागरुकता आदि। मगर इन साढ़े छः साल में प्रगति क्या हुयी वह जानने से पहले समझें जून 2018 तक की सफलता तो जवाब है जीरो। क्योंकि चमड़ी जाये पर दमड़ी न जाये मतलब साफ है कि रकम एक रूपया भी खर्च नहीं की, और 107 करोड़ ब्याज हुआ अन्य आमदनी इकट्ठी करके कुल कर लिये रूपया 266.94 करोड़। अब आप समझ गये होंगे कि अफसरशाही की नियत गंगा सुधारने की नहीं, रूपया संभालने की है। अगर आप समझ रहे होंगे कि ऐसा कैसे तो आपको समझना होगा 6 नवंबर 2018 को जल संसाधन मंत्रालय ने एक आरटीआई के जवाब में बताया कि 15 अक्टूबर 2018 तक इस फंड में ब्याज समेत 266.94 करोड़ रुपए जमा हो गए थे।
विज्ञापन पर 36 करोड़ से ज्यादा खर्च
गंगा भले ही साफ नहीं हुई, मगर मीडिया को जरूर मिल गये 36 करोड़ रूपये। जिस पानी मछली जिंदा नहीं बची, जीव जन्तु, जानवर तो दूर इंसान तक बिचकने लगे उस गंगा को 36 करोड़ लेकर न सिर्फ मीडिया ने हुक्मरान और अफसरशाही को ही सिर पर बैठाया बल्कि नमामी गंगे से लेकर निर्मल गंगा, स्वच्छ गंगा तक खूब कथा दिखायी और सुनायी गयी। सवाल उठता है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र वाले देश की मीडिया का स्तर इतना कैसे गिर गया, जहर को अमृत बताने में प्रिंट और इलैक्ट्ोनिक मीडिया इतनी अंध क्यो हो गयी, अब आप समझ रहे होंगे कि आखिर ऐसा क्यों लिया तो आप पहले यह याद करिये कि 2014 से 2018 के बीच गंगा कैसी रही और इस पर रूपये की बारिश कितनी हुयी, इससे भी पहले समझिये मीडिया के लिये रूपये की बारिश किस तरह हुयी। 2014-15 से 2018-19 के बीच प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में गंगा से संबंधित जारी हुए विज्ञापनों पर 36.47 करोड़ रुपए खर्च किए गए। साल दर साल विज्ञापन पर खर्च बढ़ता चला गया। 2014-15 में विज्ञापन पर 2.04 करोड़ रुपए खर्च किए गए थे। 2015-16 में यह राशि 3.34 करोड़, 2016-17 में 6.79 करोड़, 2017-18 में 11.07 करोड़ और चुनावी साल आते-आते मतलब अप्रैल 2019 तक केवल आठ महीनों में विज्ञापन की रकम बढ़कर 13 करोड़ रुपए का आंकड़ा पार कर गई।