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 दुर्गापूजा महोत्सव दशहरे से शुरू

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सुल्तानपुर का ऐतिहासिक दुर्गापूजा महोत्सव दशहरे से शुरू, पूर्णिमा को होगा विसर्जन

सुल्तानपुर, 07 अक्टूबर । ऐतिहासिक दुर्गापूजा महोत्सव देश में कलकत्ता शहर के बाद अयोध्या के निकट बसे कुशभवनपुर का है। यहाँ की दिव्यता, भव्य सजावट और नौ दिन नवरात्रि की आराधना के बाद दशहरा से पंडालों की सजावट शुरू होती हैं। अलग-अलग तरह से होने वाली भव्य सजावट और दुर्गा जागरण से शहर अलौकिक हो उठता है। यहाँ का विसर्जन सबसे आकर्षक होता है, जो परंपरा से हटकर पूर्णिमा को सामूहिक शोभायात्रा के रूप में शुरू होकर लगभग 36 घंटे में सम्पन्न होता है।

प्रभु श्रीरामचंद्र की अयोध्या से लगभग 65 किलोमीटर, प्रयागराज से 100 तथा बाबा भोलेनाथ की नगरी काशी से 155 किलोमीटर की दूरी पर बसे कुश की नगरी कुशभवनपुर (सुल्तानपुर) स्थित है। गोमती नदी के तट पर स्थित प्राचीनकाल में इसे भगवान कुश ने बसाया था। जिसके कारण इसे कुशभवनपुर के नाम से भी जाना जाता है।

अपनी अनेकों पहचान वाला उत्तर प्रदेश के लव की नगरी लखनऊ एवं भगवान श्रीराम की नगरी अयोध्या के पास मौजूद है। जहां दशहरे के पर्व पर सांस्कृतिक व धार्मिक कार्यक्रम आयोजित होते हैं। इन सभी जिलों के रंग यहाँ की दूर्गापूजा महोत्सव के आगे फीके पड़ जाते हैं। यही वजह है कि देश में उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर (कुशभवनपुर) जिले का दुर्गापूजा महोत्सव कोलकाता से भी पहले स्थान रखता है। कोलकाता में संख्या बल या सज्जा में भले पहला स्थान रखता हो किंतु अन्य मायनों में यहाँ की दुर्गापूजा अपने आप में इकलौती है।

पहली बार वर्ष 1959 में शहर के ठठेरी बाज़ार में बड़ी दुर्गा के नाम से भिखारीलाल सोनी ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर यहां दुर्गापूजा महोत्सव के उपलक्ष्य में पहली मूर्ति स्थापना की थी। इस मूर्ति को उनके द्वारा बिहार प्रान्त से विशेष रूप से बुलाये गए तेतर पंडित व जनक नामक मूर्तिकारों ने प्रतिमा को अपने हाथों से बनाया था। विसर्जन पर उस समय शोभा यात्रा डोली में निकली गयी थी। डोली इतनी बड़ी होती थी जिसमें आठ व्यक्ति लगते थे। पहली बार जब शोभा यात्रा सीताकुंड घाट के पास पहुंची थी तभी जिला प्रशासन ने विर्सजन पर रोक लगा दिया था। जो बाद में सामाजिक लोगों के हस्तक्षेप के बाद विसर्जित हो सकी थी। यह दौर दो सालों तक ऐसे ही चला। वर्ष 1961 में शहर के ही रुहट्टा गली में काली माता की मूर्ति की स्थापना बंगाली प्रसाद सोनी ने कराई और फिर 1970 में लखनऊ नाका पर कालीचरण उर्फ नेता ने संतोषी माता की मूर्ति को स्थापित कराया। वर्ष 1973 में अष्टभुजी माता, श्री अम्बे माता, श्री गायत्री माता, श्री अन्नापूर्णा माता की मूर्तियां स्थापित कराई गई। इसके बाद से तो मानों जनपद की दुर्गापूजा में चार चांद लग गया और शहर, तहसील, ब्लाक एवं गांवों में मूर्तियों का तांता सा लग गया।

पहली बार आठ कहार की डोली से निकली थी विसर्जन शोभायात्रा

सर्वप्रथम स्थापित की गई मूर्तियों को कंहार डोली पर उठाकर चलते थे, जिसमें एक मूर्ति को उठाये जाने के लिये आठ कहार लगते थे। जो कि अब ट्रैक्टरों पर बिजली की जगमगाहट के साथ क्रमबद्ध झांकी के रुप में निकलती हैं। जिले की पहचान और गौरव दुर्गापूजा महोत्सव के रुप में इसलिये और बढ़ गया कि दशमी के दिन देश व प्रदेश के अन्दर मूर्तियां विसर्जित कर दी जाती हैं, पर यहां कुछ अलग ही परम्परा का इतिहास है। दशमी के दिन रावण का पुतला फूंके जाने के पूर्व नौ दिनों तक शहर के रामलीला मैदान में सम्पूर्ण रामलीला की झांकी प्रस्तुत की जाती है और उसके बाद दशमी के दिन से सात दिनों दुर्गापूजा मेले का आयोजन होता है। जिसमें भरत-मिलाप से लेकर विविध कार्यक्रम आयोजित होते हैं। इतना ही नहीं जनपद को देश के अन्दर पहला स्थान मिलने का एक मुख्य वजह यह है कि वर्ष 1983 के बाद से शहर के अन्दर जगह-जगह अनेक मंदिरों का दृश्य कारीगरों द्वारा पंडाल के रुप में देखने को मिलता रहा है। जिसमें करीब 10 लाख से अधिक का खर्च आता है, साथ ही आने वाले दूर दराज के लोगों के लिये विशाल भंडारे के आयोजन के साथ दवा से लेकर हर आवश्यक सुविधा स्थानीय स्वयं सेवी संस्थाओं द्वारा यहां मुहैया कराई जाती है।

सप्ताह भर चलने वाले इस कार्यक्रम का समापन विसर्जन के रुप में करीब 36 घंटों के बाद सीताकुंड घाट पर होता है। जिसे देखने के लिये आसपास जिलों के हजारों लोग जमा होते है। ऐसे में शहर के अंदर तिल रखने की भी जगह नहीं होती।

केन्द्रीय पूजा व्यवस्था समिति के पूजा प्रबंधक बाबा राधेश्याम सोनी की मानें तो आज भिखारीलाल सोनी इस दुनिया में नहीं है, पर उनके द्वारा रखी गई दुर्गापूजा महोत्सव की नींव मजबूत से मजबूत होती चली आ रही है। राधेश्याम की मानें तो उनका जनपद गंगा जमुनी तहजीब की मिसाल है। वह इस बुनियाद पर कि पूर्व में दुर्गापूजा महोत्सव के दौरान मुस्लिम समुदाय के मोहर्रम और बारह रबीउल अव्वल का पर्व एक साथ पड़ गया था फिर भी यहां बिना विवाद के सकुशल संपन्न हुआ। समितियों में मुस्लिम सदस्य भी है और तमाम मुस्लिम विभिन्न स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से दुर्गा भक्तों के सहयोग में लगे रहते हैं। आज दुर्गापूजा महोत्सव में मुस्लिम समुदाय के लोग कंधे से कंधा जोड़ सौहादर्य बनाये रखने के लिये जुटे रहते हैं।

शहर की कोई गली कोई कोना बाकी नहीं, जहां इस ऐतिहासिक उत्सव की धूम न हो। शहर एक पखवाड़े रात दिन जगता है। छह दशकों से चला आ रहा यह समारोह केवल हिन्दुओं का पर्व न होकर सुलतानपुर का महापर्व बन चुका है। प्रशासन भी यहां की गंगा जमुनी तहजीब को देखकर पूरी तरह आश्वस्त रहता है। यहां रहने वाले किसी भी मजहब के लोग जिस तरह इस महापर्व में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं और एक मिसाल कायम किये हुए हैं।