पांडुरंग शास्त्री आठवले एक ऐसा नाम है, जिन्होंने भगवद् गीता के विचारों की सिद्धि से न केवल हिंदुस्तान बल्कि पूरे विश्व के लोगों को स्वाध्याय कार्य का सन्देश दिया। विश्व के कई बड़े पुरस्कारों से सम्मानित पांडुरंग शास्त्री आठवले ने भगवद् गीता के विचारों को सरल शैली में बताकर लाखों लोगों को स्वार्थ के बिना कर्म करने के लिए प्रेरित किया। आज विश्वभर में दो करोड़ से भी ज्यादा उनके अनुयायी हैं। उन्हें टेम्पल्टन प्राइज, रेमन मैग्सैसे सम्मान सहित भारत सरकार की तरफ से दूसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया।
पांडुरंग शास्त्री का जन्म महाराष्ट्र के रोहा गाँव में 19 अक्टूबर, 1920 में हुआ था। उनका जन्मदिन ‘मनुष्य गौरव दिन’ के रूप में मनाया जाता है। पांडुरंग शास्त्री जी ‘’दादा’’ के नाम से लोकप्रिय थे। पांडुरंग शास्त्रीजी की विशेषता थी कि उन्होंने कभी प्रेस और मीडिया का इस्तेमाल अपने और अपने कार्य की प्रसिद्धि के लिए नहीं किया। दादा जी ने पूरे जीवन में भगवद् गीता के 700 श्लोकों पर 6 से 7 बार प्रवचन किये और आज लाखों वीडियो कैसेट उनके गीता और वेद-उपनिषद् के प्रवचनों में उपलब्ध है। उनके प्रवचन की कोई भी विडियो कैसेट बाजार में बिकती नहीं है। अगर किसी को उनका प्रवचन सुनना है तो उन्हें दादाजी के स्वाध्याय केंद्र में ही जाना पड़ता है और वहीं सबके साथ बैठ कर वो प्रवचन सुन सकते हैं। उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी में कभी किसी से सामने हाथ नहीं फैलाया न ही कभी वित्तीय मदद स्वीकार की। दादाजी, भारत के 10,000 गाँवों में पैदल चल कर या खुद साइकिल चला कर गए और लोगों को गीता का उपदेश सुनाया।
आज समाज में मुफ्त का मिलने पर जहां लाइन लग जाती है, ‘दादाजी’ ने लाखों लोगों को -मुफ्त का लूँगा नहीं- ऐसे भगवद गीता के महान विचारों पर चलने का एक महत्वपूर्ण विचार कार्यान्वित किया है। उसने खुद कभी किसी के पास से कुछ माँगा नहीं और लाखों लोग ऐसे तैयार भी किये, जो नचिकेत्त वृति के हो। भगवद् गीता, वेद-उपनिषद और पुराणों की महत्त्व की बातें उन्होंने अपने प्रवचन द्वारा लोगों में ट्रांसफर की और वही बातें पुस्तकों के माध्यम से गाँव-गाँव तक पहुंचाई। कार्य में एक भी पैसे के लेनदेन के बगैर हर कोई व्यक्ति अपना खुद का उद्धार करने के लिए, अपने टिकट और अपनी टिफिन के साथ दूसरे गाँव एवं दूसरे व्यक्ति के पास बिना स्वार्थ जाए, ऐसा माहौल उत्पन्न किया। ‘स्वाध्याय’ का मतलब बताते हुए उन्होंने कहा कि यह ‘स्व’ का अध्ययन है, जैसे भगवद् गीता में कहा है कि व्यक्ति खुद ही अपना उद्धार कर सकता है।
इलाहाबाद में ‘तीर्थराज मिलन’ करने के बाद देशभर में उनके कई बड़े कार्यक्रम हुए, जिसमें 10-15 लाख लोग इकट्ठा होते थे, पर पुलिस या सिक्युरिटी की जरूरत न पड़े ऐसी ‘स्वयं शिस्त’ का उनके कार्यक्रम जैसा उदहारण आजतक कोई दूसरा नहीं प्रस्तुत कर सका। दूसरी विश्वधर्म परिषद् में भारत के प्रतिनिधि के रूप में दादाजी को आमंत्रित किया गया था और उनके द्वारा कहे भगवद् गीता के विचारों से विश्व के कई देशों के लोग बहुत प्रभावित हुए। वहां लोगों ने मुंहमांगी कीमत पर विचार और कार्य यात्रा उनके देश में करने की पेशकश की लेकिन दादाजी ने विनम्रता पूर्वक इसे ठुकराते हुए कहा कि यह विचारधारा मेरे देश की है और जब तक यह विचार पर चलने वाले लोग मेरे देश में तैयार नहीं होंगे तब तक मैं कही नहीं जाऊंगा।
दादाजी ने स्वाध्याय कार्य की शुरुआत गुजरात से की थी और फिर महाराष्ट्र से आगे देशभर में लेकर गए। गुजरात में अलग-अलग कई स्थानों पर बिना मूल्य वेद-उपनिषद् एवं कौशल के लिए उनके द्वारा पाठशाला शुरू की गई है। मुंबई के पास थाना में एक विद्यापीठ की स्थापना की गई है जहां स्नातक के बाद युवाओं को वेद-उपनिषद् का प्रशिक्षण बिना मूल्य दिया जाता है।
जब कोई अच्छा काम होता है तब उसमें बाधा डालने वाले लोग तैयार ही होते हैं। ऐसे ही उनके इस पवित्र कार्य में भी हुआ था। ‘दीदाजी’ के 80वें साल के कार्यक्रम पर उनकी खराब तबीयत के कारण जब उन्हें ऐसा लगा कि अब इस कार्य की डोर किसी को सौंपनी चाहिए तब उनका प्रस्ताव एकमात्र उनकी दत्तक पुत्री, ‘जयश्री दीदी’ के नाम पर ही था। यह बात भी सही थी, क्योंकि जो कार्य अपनी कड़ी मेहनत से तैयार किया गया हो, उसको वह किसी के भी हाथ में कैसे दें? उनकी इस बात में कोई वांशिक परंपरा का उद्देश्य नहीं था पर जिस व्यक्ति को उन्होंने बचपन से ही अपने साथ रखकर संस्कृति के विचारों पर चलना सिखाया था, उस पर ही उनका विश्वास होता न। लेकिन सालों से पद, प्रतिष्ठा और पैसे की लालसा में उनके आसपास भी ऐसे कई लोग थे, जो चाहते थे कि इस कार्य की जिम्मेदारी उनको दी जाये, जो दादाजी को मंजूर नहीं था। इसी बात को लेकर देशभर में यह 10-12 लोगों ने स्वाध्याय कार्य के कई अनुयायियों को उकसाया और ‘दीदी’ का विरोध किया।
यह बात सिद्ध है कि अगर दादाजी को पैसे की लालसा होती तो तत्कालीन उप राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन की सरकारी मदद की पेशकश क्यों ठुकराते। डॉ. राधाकृष्णन उपराष्ट्रपति रहते उनके पास उनकी ‘तत्वज्ञान विद्यापीठ में गए थे। उस समय दादाजी कई आर्थिक मुश्किलों में घिरे हुए थे और राधाकृष्णन ने उनको कई चीजें ऑफर की थी, तब उन्होंने बहुत नम्र भाव से कहा था कि यह कार्य भगवान का है और उसको चलाना है तो वो अपने आप मदद कर देगा, इस कार्य को सरकारी मदद की जरूरत नहीं है। 1996 में जब दादाजी को रेमन मेगसेसे अवॉर्ड मिला तब भी उनको एवॉर्ड लेने के समय में एक ब्लैंक चेक ऑफर किया गया था, उस समय भी दादाजी ने नम्रता से उसे अस्वीकार किया था।
2003 में दादाजी के निधन के बाद उनकी बेटी जयश्री आठवले जी ने उनका कार्यभार संभाला, जिनको ‘’दीदी’’ के नाम से स्वाध्यायी लोग जानते हैं। आज देश के एक लाख गाँवों से ज्यादा और विश्व के 40 से ज्यादा देशों में यह पवित्र कार्य गति के साथ चल रहा है। दादाजी ने बगैर कंठी बांध और कोई लौकिक धार्मिक प्रक्रिया के बिना लाखों लोगों को ‘एक पिता- ईश्वर’ के बंधन से जोड़ा। स्वाध्याय कार्य शुरू हुआ तब भी कोई फंड-डोनेशन नहीं होता था और आज भी नहीं होता है। बिना किसी लेनदेन से यह कार्य चल रहा है।