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कांग्रेस बचा रही अपनी लाज

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हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस अपने साथी दलों के सामने नरम पड़ गयी है। इसे समझने के लिए महाराष्ट्र के आने वाले विधानसभा चुनाव और उत्तर प्रदेश के उपचुनाव काफी हैं। महाराष्ट्र में जिस दिन महाविकास अघाड़ी के दलों में अंतिम रूप से सीटों का बंटवारा हुआ, उसके दो दिन पहले तक अलग तरह की खबरें आ रही थीं। कहा गया कि कांग्रेस राज्य में बड़ा भाई का दर्जा बरकरार रखेगी। सीट शेयरिंग का यह फार्मूला आ रहा था कि कांग्रेस 105 से 110 क्षेत्रों में चुनाव लड़ सकती है। दूसरी ओर शिवसेना (यूबीटी) को 90 से 95 और शरद पवार वाली एनसीपी को 75 से 80 सीटें मिलने की संभावना जतायी गयी। यह उम्मीद लंबे समय तक बरकरार नहीं रही। जब समझौता हुआ तो तय हो गया कि तीनों में से कोई बड़ा-छोटा नहीं है। कांग्रेस भी अपने साथी दलों के बराबर ही है। प्रत्येक दल को 85 सीटें मिलीं और शेष सीटों पर ये पार्टियां मित्रवत अपने प्रत्याशी उतार सकती हैं। यानी बाकी सीटों पर ये आमने-सामने हो सकती हैं। जो भी हो, कांग्रेस पर दबाव साफ दिख रहा है और वह राज्य में उद्धव ठाकरे और शरद पवार की पार्टियों के बराबर आ गयी है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के लिए छोटे-बड़े की बात तो लंबे समय से पृष्ठभूमि में जा चुकी है। वहां किसी तरह से अस्तित्व बचाए रखने का लक्ष्य है।

महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा के साथ देशभर में उपचुनाव भी हो रहे हैं। इनमें उत्तर प्रदेश की 10 सीटों पर मतदान कराया जाना था। कानूनी अड़चनों के चलते एक क्षेत्र मिल्कीपुर में उपचुनाव नहीं हो रहा है। बाकी बची 09 सीटों में से कांग्रेस ने पहले 05 सीटों की मांग रखी थी। यह कुल 10 में आधा-आधा का फार्मूला था। लोकसभा चुनाव में सपा के साथ समझौते में मिली 17 में से कांग्रेस 06 पर जीत कर उत्साह में थी। यह अति उत्साह में बदलता तब दिखा, जब हरियाणा में उसने सपा के साथ समझौता नहीं किया। अब सपा को मौका मिला उत्तर प्रदेश उपचुनाव में। उसने कांग्रेस को गाजियाबाद और खैर सीट देने का प्रस्ताव रखा। कांग्रेस को यह दोनों सीटें हार वाली लग रही थीं। उसने प्रयागराज की फूलपुर पर भी अपनी दावेदारी की किंतु सपा टस से मस नहीं हुई।

अंततः कांग्रेस ने अपनी प्रतिष्ठा बचाते हुए ‘भाजपा को हराने के लिए गठबंधन को महत्व’ के नाम पर उत्तर प्रदेश में उपचुनावों से अलग रहने का फैसला कर लिया। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय राय, राज्य प्रभारी अविनाथ पाण्डेय और विधायक दल नेता अराधना मिश्रा ने इस निर्णय को संविधान बचाने के लिए भाजपा के खिलाफ मोर्चा के हक में किया फैसला कहा है।

इसके विपरीत स्पष्ट है कि हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में उम्मीद से कम रह गयी कांग्रेस, उत्तर प्रदेश में कोई खतरा मोल लेना नहीं चाहती। उसे उप चुनाव से अधिक 2027 में होने वाले विधानसभा चुनाव की चिंता है। उपचुनाव से अलग रहने के फैसले को अब वह सपा से दोस्ती और अपने संविधान बचाओ मुहिम के लिए त्याग बता रही है। झारखंड में तो वह हेमंत सोरेन सरकार का अंग ही है। वहां उसका दूसरे नंबर पर रहना तय था। तेजस्वी यादव ने भी अंततः मुख्यमंत्री सोरेन से बात कर मोर्चे में अपनी जगह पक्की कर ली। इस तरह झारखंड में भी कांग्रेस ने मोर्चे में बने रहने के लिए नरम रुख ही अपनाया है। कुल मिलाकर उसे यह बात समझ में आ गयी है कि विपरीत स्थितियों में विनम्रता ही सहायक होती है।